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विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्राओं का सोद्देश्य स्वरूप......129 दोनों हाथों को ऊपर उठाकर अंगुलियों को एक-दूसरे में गूंथ दें। फिर अंगूठों के द्वारा कनिष्ठिका अंगुलियों को और तर्जनियों के द्वारा मध्यमा अंगुलियों को अच्छी तरह से पकड़कर अनामिका अंगुलियों को एक-दूसरे से स्पर्शित करते हुए सीधा रखना परमेष्ठी मुद्रा है। सुपरिणाम
• शारीरिक दृष्टि से शरीर के पंच तत्त्वों पर नियंत्रण होता है। शारीरिक थकान दूर होती है। इससे जल तत्त्व और आकाश तत्त्व संतुलित रहते हैं तथा तज्जन्य दोषों का परिहार होता है। मस्तिष्क सम्बन्धी रोगों में लाभ पहँचता है।
• आध्यात्मिक दृष्टि से इसका अभ्यास साधक को उच्च स्तर की ओर अग्रसर करता है। जिससे साधक को पंचकोष का पूर्ण ज्ञान हो जाता है और चेतन मन सदैव आनन्दमय कोष में रहता है। __इस मुद्रा से स्वाधिष्ठान (गोनाड्स ग्रन्थि) और आज्ञा चक्र (पीयूष ग्रन्थि) सक्रिय बनते हैं। इससे व्यक्ति सही निर्णय लेने में सक्षम होता है, वह स्रावों को बदल कर काम से अकाम हो जाता है,
कामवृत्तियाँ अनुशासित हो जाती हैं, आवेग कम हो जाते हैं तथा ब्रह्मचर्य पालन की शक्ति प्राप्त होती है। विशेष
• परमेष्ठी मुद्रा अभ्यास साध्य एवं आराधना योग्य है। इसे प्रतिदिन करना चाहिए।
• एक्यूप्रेशर सिद्धान्त के अनुसार यह बेहोशी, गिर पड़ने, उच्च ज्वर, हृदय एवं श्वास सम्बन्धी रोगों को दूर करने में मुख्य रूप से कार्य करती है।
• यह गला, छाती एवं तालु के उपचार हेतु विशिष्ट मुद्रा है।
• इस मुद्रा से उदर विकार, अंगुलियों की सूजन, हथेली की गर्माहट शान्त होती है। 46. परमेष्ठी मुद्रा (द्वितीय) ___ परमेष्ठी मुद्रा दो तरह से बनायी जा सकती है। द्वितीय प्रकारान्तर में भी परमेष्ठी की प्रतिकृति निर्मित की जाती है अत: इसका नाम परमेष्ठी मुद्रा है।