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विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्राओं का सोद्देश्य स्वरूप......155 विधि
"जानुहस्तोत्तमांगादिसंप्रणिपातेन प्रणिपात मुद्रा।"
दोनों घुटने, दोनों हाथ एवं मस्तक इन पांच अंगों को अच्छी तरह झुकाने पर प्रणिपात मुद्रा बनती है। सुपरिणाम
• शारीरिक स्तर पर इस मुद्रा के अभ्यास से हमारी अन्तःस्रावी ग्रंथियाँ स्वच्छ बनती हैं। मल-मूत्र सम्बन्धी विकार दूर होते हैं और वृद्ध भी युवा सदृश शक्ति सम्पन्न हो जाते हैं। उदर भाग की मांसपेशियाँ संतुलित अवस्था में रहती हैं।
इस मुद्रा में किंचित् वज्रासन का भी प्रयोग होता है। उससे जांघ, पिण्डलियों, रीढ़, कमर, पेट आदि के विकार दूर होते हैं और मल द्वार की शुद्धि होती है।
प्रात:काल में यह मुद्रा करने से प्रमाद दूर होकर मन एकाग्र होता है। एड़ी पर दबाव पड़ने से बवासीर की बीमारी नहीं होती। इससे शरीर के सभी अवयव सक्रिय रहते हैं तथा यह मुद्रा पाँचों तत्त्वों को समान रूप से प्रभावित करती है।
• वैज्ञानिक दृष्टि से मस्तक को भूमि पर स्पर्श करवाने से रेटीकुलर फारमेशन (तांत्रिक जाल) प्रभावित होता है। इससे भय, क्रोध, तृष्णा आदि के भाव मन्द हो जाते हैं और हिंसात्मक उत्तेजनाएँ कम होती हैं।
• आध्यात्मिक स्तर पर मानसिक एकाग्रता एवं सहनशीलता का विकास होता है।
इससे मूलाधार चक्र विशेष प्रभावित होने के कारण इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियों में प्राण प्रवाह सम्यक रूप से होता है। इससे व्यक्तित्व विकास में भी अपेक्षित सहयोग मिलता है। __इस मुद्रा में बार-बार मेरुदण्ड पर दबाव पड़ने से वह सुदृढ़, लचीला, स्वस्थ और प्राणवान बनता है। विशेष
• एक्यूप्रेशर सिद्धान्त के अनुसार पैरों के अंगूठों पर दबाव पड़ने से नाड़ियों के साथ मस्तिष्क की पिट्युटरी एवं पीनियल ग्रन्थियाँ भी प्रभावित होती हैं। पिट्युटरी ग्रन्थि शरीर की समस्त अन्त:स्रावी ग्रन्थियों की अधिनायिका है।