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विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्राओं का सोद्देश्य स्वरूप...
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दें। फिर दोनों हाथों की परस्पर मुट्ठी बाँधकर, तर्जनी अंगुलियों को आपस में सम्मिलित कर प्रसारित करने से भृंगार मुद्रा बनती है ।
सुपरिणाम
• शारीरिक स्तर पर इस मुद्रा के प्रयोग से जठराग्नि प्रदीप्त होती है । उदर सम्बन्धी रोगों का शमन होता है। शरीर में ऊर्जा की कमी दूर होती है। इससे आकाश तत्त्व अधिक सक्रिय बनकर हृदय सम्बन्धी रोगों का निवारण करता है । यह मुद्रा श्वास पर नियन्त्रण कर श्वास गति को धीमा करती है।
• वैज्ञानिक स्तर पर लघु मस्तिष्क (ज्ञान केन्द्र) प्रभावित होने से ज्ञानतंतुओं को क्रियाशील बनाता है। इससे बौद्धिक क्षमता विकसित होती है तथा स्वास्थ्य केन्द्र समस्थिति में बना रहता है।
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आध्यात्मिक स्तर पर विवेक का दीपक प्रज्वलित होकर असाध्य समस्याओं का निराकरण होता है।
61. योगिनी मुद्रा
जैन परम्परा में चौसठ योगिनी की अवधारणा प्राप्त होती है। वर्तमान परम्परा में प्रतिष्ठा के समय, पूर्व निर्धारित पट्ट पर योगिनियों का नामोच्चारण करते हुए तिलक आदि द्वारा पूजा की जाती है। विधिमार्गप्रपा के कर्त्ता आचार्य जिनप्रभसूरि ने इस सम्बन्ध में स्पष्ट कहा है कि योगिनियों की पूजा करने के पश्चात ही आचार्य को नन्दी, प्रतिष्ठा आदि कार्य करने चाहिए।
डॉ. सागरमलजी जैन के अनुसार योगिनी साधना - उपासना के उल्लेख प्रथमत: ब्राह्मण परम्परा में प्राप्त होते हैं। वहीं से यह जैन परम्परा में प्रविष्ट हुई है। लगभग 10वीं - 11वीं शती से ब्राह्मण परम्परा के समान ही जैन परम्परा में भी चौसठ योगिनियों के उल्लेख मिलते हैं। जैन ग्रन्थों में ऐसे भी उल्लेख मिलते हैं कि जैनाचार्य इन योगिनियों की साधना कर उन्हें अपने वश में कर लेते थे और उनसे धर्म प्रभावना के निमित्त इच्छित कार्य करवाते थे। नेमिचन्द्रसूरि विरचित आख्यानकमणिकोश (11वीं शती) में उल्लेख है कि राजा नन्द के रोग को दूर करने के लिए योगिनी पूजा की गई थी । निर्वाणकलिका में (11वीं - 13वीं शती) तो योगिनीस्तोत्र भी मिलता है। विधिमार्गप्रपा ( 14वीं शती) में चौसठ योगिनियों को उपशान्त करने हेतु पूजा करने का उल्लेख है। खरतरगच्छ पट्टावली में जिनदत्तसूरि द्वारा योगिनियों को पराजित करने अथवा वश में करने