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मुद्रा प्रकरण एवं मुद्राविधि में वर्णित मुद्राओं की प्रयोग विधियाँ ...307 विधि
“वामहस्तेन मुष्टिकां प्रसार्य शेषांगुलीरंगुष्ठेन पीडयेत् इति शरामुद्रा।" ___बायें हाथ की बंधी मुट्ठी को प्रसारित करके एवं शेष अंगुलियों को अंगूठे के द्वारा संपीडित करने पर शरा मुद्रा बनती है। सुपरिणाम
• इस मुद्रा का प्रयोग करने से आज्ञा, सहस्रार एवं विशुद्धि चक्र सक्रिय होते हैं। अतीन्द्रिय ज्ञान एवं क्षमता को जागृत करते हुए यह मुद्रा भावों को अभिव्यक्त करने में सहायक बनती है।
• शारीरिक स्तर पर इससे गला, मुँह, कण्ठ, कान, मस्तिष्क आदि की समस्या दूर होती है। यह गठिया, मस्तिष्क का कैन्सर, पार्किंसस रोग, मिरगी, सिरदर्द, पागलपन, पुरानी बीमारी, अंत:स्रावी तंत्र से सम्बन्धित समस्याओं का निवारण करती है।
• आकाश एवं वायु तत्त्व को संतुलित करते हुए यह मुद्रा श्वसन एवं रक्त संचरण तंत्र को संतुलित रखती है। हृदय में आनंद एवं प्रेम की अनुभूति करवाती है तथा प्राण धारण एवं उनके सुनियोजन में सहायक बनती है।
. पीयूष, पीनियल, थायरॉइड एवं पेराथायरॉइड ग्रंथि के स्राव को संतुलित करते हुए यह मुद्रा स्वभाव, व्यवहार एवं जीवन को नियमित एवं नियंत्रित रखती है। 73. वज्र मुद्रा
इस मुद्रा का स्वरूप विधिमार्गप्रपा में उपदिष्ट मुद्रा नं. 28के समान है।
वज्र मुद्रा का उपयोग प्रतिष्ठा जैसे मंगलकारी प्रसंगों में अंग रक्षा निमित्त किया जाता है।
इसका बीज मन्त्र ‘श्क' है। 74. श्रृंखला मुद्रा
इस मुद्रा का परिचय विधिमार्गप्रपा में उल्लिखित मुद्रा नं. 27 की भाँति जानना चाहिए।
यह मुद्रा प्रतीक रूप में दुष्टों को बन्धन में आबद्धित करने और खण्डित (बिखरे) चित्त वाले शिष्य आदि को स्थिर करने के प्रयोजन से की जाती है।
इसका बीज मन्त्र 'ग' है।