Book Title: Jain Mudra Yog Ki Vaigyanik Evam Adhunik Samiksha
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 375
________________ मुद्रा प्रकरण एवं मुद्राविधि में वर्णित मुद्राओं की प्रयोग विधियाँ ...311 विधि “वामहस्तस्य मध्यमाङ्गुष्ठयोजनेन पाशक मुद्रा ।" बायें हाथ की मध्यमा को अंगूठे से योजित करने पर पाशक मुद्रा बनती है। सुपरिणाम " • पाचन जैन ग्रंथों में वर्णित पाशक मुद्रा को धारण करने से मूलाधार एवं स्वाधिष्ठान चक्र जागृत एवं सक्रिय होते हैं। इनके जागरण से भीतर में ऊर्जा का उत्पादन एवं ऊर्ध्वगमन होता है तथा बलिष्ठता एवं स्फूर्ति बढ़ती है। • शारीरिक स्तर पर यह मुद्रा खून की कमी, सूखी त्वचा, समस्या, शारीरिक कमजोरी, गुर्दे की कमजोरी आदि को दूर करती है। पृथ्वी एवं जल तत्त्व को संतुलित करते हुए यह मुद्रा भावों एवं विचारों में स्थिरता, दृढ़ता एवं एकाग्रता आदि बढ़ाती है। प्रतिकूलता एवं विपरीत परिस्थिति को स्वीकार करने की क्षमता उत्पन्न करती है। • • प्रजनन ग्रंथि के स्राव को नियंत्रित कर कामेच्छा पर नियंत्रण करती है। इससे चेहरे के तेज, आकर्षण आदि में वृद्धि होती है। 87. खड्ग मुद्रा यह मुद्रा विधिमार्गप्रपा वर्णित मुद्रा नं. 38 के समान है। खड्ग मुद्रा शिष्य स्थापना के अवसर पर, परचक्र निवारण और ईति भय के निवारण हेतु दिखायी जाती है। इसका बीज मन्त्र 'त' है। 88. प्रवचन मुद्रा इस मुद्रा का परिचय विधिमार्गप्रपा निर्दिष्ट मुद्रा नं. 68 के समान है। प्रवचन मुद्रा मुख्य रूप से सिद्धान्तों का अभ्यास करते हुए, व्याख्यान देते हुए और ध्यान साधना में स्थिर रहते हुए की जाती है। इसका बीज मन्त्र 'थ' है। 89. योग मुद्रा इस मुद्रा का स्वरूप विधिमार्गप्रपा वर्णित मुद्रा नं. 72 के समान है। यह मुद्रा ध्यान करते वक्त, प्रतिष्ठा के प्रसंग पर और शक्रस्तव पाठ बोलते समय की जाती है। इसका बीज मन्त्र 'द' है।

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