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322... जैन मुद्रा योग की वैज्ञानिक एवं आधुनिक समीक्षा
उपलब्ध नहीं हो पाई है किन्तु डॉ. सागरमल जैन ने इसका वर्णन प्रस्तुत किया है । तुलना की दृष्टि से देखा जाए तो लघुविद्यानुवाद की मुद्राएँ लगभग विधिमार्गप्रपा के समान ही है । 'जैन धर्म और तान्त्रिक साधना” (पृ. 330-333) के आधार पर विवेच्य मुद्राओं का स्वरूप इस प्रकार है
1. बाएँ हाथ के ऊपर दाहिना हाथ रखकर कनिष्ठिका और अंगूठों से मणिबन्ध को लपेटकर अवशिष्ट अंगुलियों को फैलाने से वज्र मुद्रा होती है।
2. दोनों हाथों को पद्माकार करके अंगूठों को मध्य में कर्णिका आकार में रखने से पद्म मुद्रा होती है ।
3. वाम हस्ततल में दक्षिण हस्तमूल को निविष्ट कर अंगुलियों को अलगअलग फैलाने से चक्र मुद्रा होती है।
4. ऊपर उठाये हुए हस्तद्वय के द्वारा वेणीबंध करके अंगूठों को कनिष्ठिका एवं तर्जनी के मध्य में एकत्र करके अनामिका में मिलाने से 'परमेष्ठी मुद्रा' होती है।
5. अथवा अंगुलियों को आधा मोड़कर मध्यमा को मध्य में करने से दूसरी परमेष्ठी मुद्रा होती है।
6. हथेलियों को ऊपर करके अंगुलियों को कुछ सिकोड़कर रखने से ‘अञ्जलिमुद्रा' अथवा 'पल्लवमुद्रा' होती है।
7. हाथ की अंगुलियों को परस्पराभिमुख करके गूँथकर तर्जनियों से अनामिका को पकड़कर, मध्यमा को फैलाकर उनके बीच में दोनों अंगूठों को डालने से 'सौभाग्यमुद्रा' होती है।
8. समान हाथों को समतल करके कुछ गहरा कर ललाट देश में लगाने से 'मुक्ताशुक्तिमुद्रा' होती है।
9. हाथों की परस्पर विमुख अंगुलियों को मिलाकर दूर से ही अपनी ओर परिवर्तित करने से 'मुद्गर मुद्रा' होती है ।
10. बाएँ हाथ की मिली हुई अंगुलियों को हृदय के आगे रखकर एवं दायीं · मुट्ठी बाँधकर तर्जनी को ऊपर करने से 'तर्जनी मुद्रा' होती है।
11. तीन अंगुलियों को सीधा करके, तर्जनी और अंगूठे को छिपाकर हृदयाग्र 'में रखने से 'प्रवचन मुद्रा' होती है।