________________
330... जैन मुद्रा योग की वैज्ञानिक एवं आधुनिक समीक्षा
साथ हथेलियों के खुलने से हथेलियों, हाथ एवं मणिबंध की मांसपेशियों पर विशेष दबाव पड़ता है। इससे उस भाग की मांसपेशियाँ पुष्ट और लचीली होती है।
• मानसिक स्तर पर इसमें दृष्टि सुस्थिर रहती है। जिसके कारण एकाग्रता, बौद्धिक क्षमता, दीर्घदर्शिता, हिताहित का विवेक जैसे गुण विकसित होते हैं । • आध्यात्मिक दृष्टि से खुली हुई दोनों हथेलियों के प्रतीकात्मक रूप में सिद्ध गति के द्वार खुलते हैं।
भौतिक स्तर पर कई तरह की आत्मिक सिद्धियाँ भी प्राप्त हो सकती है। सिद्ध सर्व बन्धनों से रहित स्वतन्त्र (आत्माधिष्ठित) होते हैं। इसलिए इस मुद्रा के अभ्यास से स्वतन्त्र व्यक्तित्व का निर्माण एवं सह अस्तित्व का बोध होता है । • अप्रमाद केन्द्र (कान एवं समीपवर्ती भाग) प्रभावित होने से आलस्य, तन्द्रा, निष्क्रियता, सुस्तापन दूर होता है और जागरूकता बढ़ती है।
विशेष- इस मुद्रा की साधना स्वाधिष्ठान, सहस्रार एवं मूलाधार चक्र को जागृत करती है। इससे कामेच्छाओं पर नियंत्रण होता है। साधक को निर्विकल्प स्थिति एवं असम्प्रज्ञात समाधि प्राप्त होती है। व्यक्ति उदार, कर्मशील एवं प्रभावशाली बनता है।
• यह मुद्रा जल, आकाश एवं पृथ्वी तत्त्व को नियंत्रित रखती है। यह शरीर में स्थित विषद्रव्यों को हटाकर शरीर को स्वस्थ एवं तंदुरूस्त बनाती है । इससे अस्थि तंत्र मजबूत बनता है।
•
स्वास्थ्य, ज्ञान एवं शक्ति केन्द्र को सक्रिय करते हुए यह मुद्रा आन्तरिक ऊर्जा का ऊर्ध्वारोहण करती है तथा अतीन्द्रिय शक्तियों को जागृत करती है।
आचार्य मुद्रा
जैन परम्परा में नवकार मन्त्र को महामन्त्र कहते हैं । इस महामन्त्र का शक्ति सम्पन्न शब्द है आचार्य। आचार्य शब्द का निर्माण आ उपसर्ग + चर धातु + ष्यत् प्रत्यय से हुआ है। आचार्य के अनेक अर्थ हैं वे समानार्थक ही प्रतीत होते हैं जैसेअध्यापक, गुरु, आध्यात्मिक गुरु, विशिष्ट सिद्धान्त का प्रस्तोता आदि।
जैन ग्रन्थों में आचार्य को इन अर्थों से बहुत ऊँचा स्थान दिया गया है। वे