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मुद्रा प्रकरण एवं मुद्राविधि में वर्णित मुद्राओं की प्रयोग विधियाँ ...337
हुए रक्त विकार, हृदय विकार, मानसिक विकार, श्वास आदि में लाभ करती है। • साधु मुद्रा की साधना से वायु, आकाश एवं अग्नि तत्त्व संतुलित रहते हैं। पित्त एवं वात प्रकृति पर इसका अच्छा प्रभाव पड़ता है। यह बेहोशी, मस्तिष्क सम्बन्धी अव्यवस्था, आखों की कमजोरी, एसीडिटि आदि के निवारण में मदद करती है।
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थायमस, पीनियल, एड्रीनल एवं पैन्क्रियाज के स्राव को संतुलित हुए यह मुद्रा शरीर की व्यवस्था एवं गतिविधियों में सहायक बनती है तथा रोग प्रतिरोधक क्षमता का विकास करती है।
हमारी आंतरिक शारीरिक संरचना अति सूक्ष्म है। एक छोटा सा बदलाव इसकी पूरी प्रक्रिया को ठप कर देता है । अत: । इनका संतुलन एवं समीकरण बनाए रखना अत्यंत आवश्यक है। जैन विधि-विधानों का मुख्य लक्ष्य समभाव की प्राप्ति है। समभाव या समाधि में स्थिरता तभी रहती है जब भावनात्मक सात्विकता के साथ दैहिक स्वस्थता एवं मानसिक निर्विकल्पता हो। विधि अनुष्ठानों में मुद्रा, आसन आदि यौगिक साधनाओं का प्रयोग इसी लक्ष्य से किया जाता है। इस अध्याय में वर्णित मुद्राओं का स्वरूप वर्णन जैन दर्शन के सूक्ष्म विषयों का ज्ञान तो करवाना ही है साथ ही आत्मस्वरूप की अनुभूति एवं प्राप्ति करवाता है।