Book Title: Jain Mudra Yog Ki Vaigyanik Evam Adhunik Samiksha
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 399
________________ मुद्रा प्रकरण एवं मुद्राविधि में वर्णित मुद्राओं की प्रयोग विधियाँ 335 चक्र संतुलित एवं सक्रिय रहते हैं। यह शारीरिक स्तर पर रक्त विकार, काम विकार, त्वचा विकार, नेत्र विकार, मूत्र प्रदेश के विकारों को दूर करती है। इससे एकाग्रता विकसित होती है और अन्तर चक्षुओं का उद्घाटन होता है। • यह मुद्रा पृथ्वी, वायु एवं आकाश तत्त्व को संतुलित रखते हुए हृदय की शुद्धि करती है, मानसिक चेताओं का पोषण करती है और शरीर को स्वस्थ एवं तंदरूस्त रखती है। • यह आनन्द, ज्ञान एवं तैजस केन्द्र को नियमित करते हुए भावधारा को निर्मल एवं परिष्कृत करती है और काम वासनाओं का परिशोधन करती है। मुनि मुद्रा समस्त धर्मों में मान्य ‘मुनि' शब्द मौन का वाचक है। मौन रखने वाला मुनि कहलाता है। संस्कृत परिभाषा के अनुसार " उच्चै मनुते जानाति यः मुनि " अर्थात जो उत्तम विचारों के द्वारा आत्मा को जानता है वह मुनि कहलाता है। मुनि शब्द मन् धातु + इन् प्रत्यय के योग से बना है । यहाँ मन् धातु मनन, चिन्तन के अर्थ में हैं। ऋषि, महात्मा, सन्त, संन्यासी, निर्ग्रन्थ यह सब मुनि के पर्यायवाची हैं। मुनि मुद्रा

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