Book Title: Jain Mudra Yog Ki Vaigyanik Evam Adhunik Samiksha
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 398
________________ 334... जैन मुद्रा योग की वैज्ञानिक एवं आधुनिक समीक्षा विधि पूर्व नियम के अनुसार सर्वप्रथम सुखासन या अन्य आसन में स्थिर हो जायें। फिर पूर्ववत दोनों हाथों को नमस्कार मुद्रा में करके सीने के मध्य भाग पर लायें। • फिर उपाध्याय मन्त्र का तीन बार उच्चारण करें। • फिर श्वास को भरते हुए दोनों हथेलियों को धीरे-धीरे आकाश की ओर ले जाएँ, बाँहों को कानों से स्पर्श करें, हथेलियों को आकाश की ओर खोल दें, द्वयांगुष्ठों के अग्रभाग और दोनों तर्जनी के अग्रभाग परस्पर में मिले रहें। . फिर श्वास रोके हुए की स्थिति में सिर को गर्दन के पीछे की तरफ ले जायें और अपलक दृष्टि से आसमान की ओर देखें। • तदनन्तर धीरे-धीरे श्वास छोड़ते हुए हाथों को पूर्वस्थिति में ले आयें। यह उपाध्याय मुद्रा कहलाती है। सुपरिणाम • शारीरिक दृष्टि से इस मुद्रा में गर्दन की तकलीफें समाप्त होती है। • चक्षुयुगल पर दबाव पड़ने से आँखों की रोशनी बढ़ती है और दृष्टि तीक्ष्ण बनती है। • थायरॉइड पेराथायरॉइड, पिच्युटचरी, पीनियल और थायमस ग्रन्थियों के स्राव संतुलित होते हैं। • मानसिक दृष्टि से चित्त की एकाग्रता बढ़ती है, बुद्धि की जड़ता दूर होती है और मन नियन्त्रित रहता है। • आध्यात्मिक दृष्टि से विद्या ग्रहण करने की क्षमता में वृद्धि होती है। ___पीछे झुकती हुई गर्दन विशालता एवं शौर्यत्व की प्रतीक हैं। इससे हृदय की विशालता बढ़ती है और ज्ञानदान की प्रवृत्ति मनः शक्ति पूर्वक होती है। इन मुद्रा के अभ्यास से स्वाध्याय के प्रति रुचि बढ़ती है। सम्यक्ज्ञान और सम्यक्दर्शन मुक्ति के चरम हेतु हैं। उपाध्याय ज्ञान और दृष्टि के आराधक होते हैं। इस मुद्रा में ज्ञान ग्रन्थियों पर दबाव पड़ता है जिससे ज्ञान-दर्शन के द्वार सहज खुल जाते हैं। शुभ भावधारा बहने से विकारी एवं विजातीय द्रव्यों का विसर्जन होता है। विशेष- • उपाध्याय मुद्रा की साधना से मूलाधार, विशुद्धि एवं आज्ञा

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