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336... जैन मुद्रा योग की वैज्ञानिक एवं आधुनिक समीक्षा ___ मुनि को साधु, श्रमण, भिक्षु, संयमी, व्रती भी कहते हैं। अर्थ की अपेक्षा उपर्युक्त शब्द स्वतन्त्र अस्तित्व रखते हैं। सामान्यत: मुनि समता, सहिष्णुता, सौम्यता, सहृदयता, सरलता, सहजता के धनी होते हैं। वे कष्टों में घबराते नहीं, सुखों में इतराते नहीं, कर्मशत्रुओं से लड़ने में कतराते नहीं। प्रत्युत सदा आत्म साधना के प्रति समर्पित रहते हैं। ___मुनि मुद्रा के अभ्यास से मैत्री, प्रमोद, करूणा, माध्यस्थादि भाव उत्पन्न होते हैं, जिससे स्व साधना का स्तर निरन्तर वृद्धि को प्राप्त होता है।
ॐ ह्रीं णमो लोएसव्वसाहूणं विधि
पूर्ववत सुखासन में स्थिर हो जायें। दोनों हाथों को नमस्कार मुद्रा में करके आनन्द केन्द्र पर लाएँ।
• फिर साधु के मन्त्र पद का तीन बार उच्चारण करें।
• तदनन्तर श्वास भरते हुए हाथों को कान से स्पर्श करते हुए आकाश की ओर ले जाएँ, हाथों को जोड़े रखें।
• इस मुद्रा में कुछ मिनट श्वास को रोककर रखें। फिर श्वास छोड़ते हुए हाथों की अंजलि मुद्रा बनाएँ।
• फिर सिर झुकाते हुए अंजलि मुद्रित हाथों को भूमि से स्पर्शित करते हुए रखें और उस स्थिति में कुछ देर के लिए श्वास को रोक लें। ___ • तत्पश्चात श्वास छोड़ते हुए हाथों को पूर्वस्थिति में ले आना मुनि मुद्रा है। सुपरिणाम
• शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से थाइमस ग्रन्थि के स्राव सन्तुलित होते हैं, जिसके फलस्वरूप मैत्री और करुणा के भाव विकसित होते हैं, कलह-द्वेष या ईर्ष्याजनित अनेक रोगों से बचते हैं तथा मानसिक रोगों से मुक्ति मिलती है।
• अध्यात्म के स्तर पर इस मुद्रा से समता और सहिष्णुता के भावों में वृद्धि होती है तथा प्राणी मात्र के प्रति मैत्री-प्रमोद-करुणा आदि के भाव उमड़ते हैं।
इसमें झुका हुआ मस्तक विनय मुद्रा का प्रतीक है उससे अहंकार का विलय एवं ऋजुता-मृदुता का पोषण होता है।
विशेष-• यह मुद्रा अनाहत, सहस्रार एवं मणिपुर चक्र को जागृत करते