Book Title: Jain Mudra Yog Ki Vaigyanik Evam Adhunik Samiksha
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 396
________________ 332... जैन मुद्रा योग की वैज्ञानिक एवं आधुनिक समीक्षा पास लाएँ। अंगूठों को कन्धे से स्पर्शित करते हुए हथेलियों को सीधा एवं खुला रहने दें। • फिर इस मुद्रा में यथासम्भव श्वास को रोककर रखें। • पश्चात धीरे-धीरे श्वास छोड़ते हुए हाथों को पूर्वस्थिति में ले आना आचार्य मुद्रा है। सुपरिणाम • शारीरिक स्तर पर इस मुद्रा में हथेलियाँ, अंगुलियाँ और हाथ की मांसपेशियाँ क्रियाशील होती है। • इस मुद्रा के दरम्यान कंधे, छाती, पृष्ठ भाग एवं श्वसन तंत्र पर दबाव पड़ने से ये संतुलित और सक्रिय बनते हैं। __ • मानसिक स्तर पर आचार्य मुद्रा में देहजन्य समस्त चंचल प्रवृत्तियों का निरोध हो जाता है उससे मन की हलचल भी समाप्त होने लगती है। एक आसन में स्थिर रहने से मनोचेतना भी नियन्त्रित रहती है। • इस मुद्राभ्यास का आध्यात्मिक जगत पर भी प्रभावी असर होता है। जैसे कि मुद्रा के प्रारम्भ और समापन में हाथों को जोड़े हुए रखने से विनय और पूज्यभाव प्रकट होते हैं तथा खुले हुए हाथों के द्वारा समर्पण भाव का उदय होता है। इस मुद्रा में दोनों हाथों की आकृति अभय मुद्रा की प्रतीक है। इससे शौर्य, ओज, वीरता, निर्भीकता, कर्मठता जैसे पुरुष प्रधान धर्म गुणों का आविर्भाव होता है। आचार्य में उक्त सभी गुण प्रधान रूप से रहे होते हैं। आचार्य मुद्रा से शुद्धाचार की प्रवृत्ति का सूत्रपात होता है। विशेष-. इस मुद्रा को धारण करने से अनाहत एवं आज्ञा चक्र सक्रिय होते हैं। ये साधक की विशिष्ट आन्तरिक शक्तियों को जागृत करते हैं। इससे त्रिकाल ज्ञान एवं विचार संप्रेषण में दक्षता प्राप्त होती है। • वायु एवं आकाश तत्त्व के संतुलन में आचार्य मुद्रा विशेष उपयोगी है। यह शरीर के संरक्षण एवं सहकारी बल उत्पन्न करने में भी सहायक बनती है। • थायमस एवं पीयूष ग्रन्थि के स्राव को संतुलित करते हुए यह मुद्रा साधक के प्रजनन अंगों को उत्तेजित होने एवं काम वासना को जागृत होने से रोकती है। चिड़ चिड़ापन, अहंभाव, क्रोध, दूराचार, मानसिक असंतुलन आदि

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