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328... जैन मुद्रा योग की वैज्ञानिक एवं आधुनिक समीक्षा दुःख, लाभ-हानि के प्रभावों से मुक्त हो जाता है। इस मुद्रा के स्मरण मात्र से अनन्त शक्तियों का आविर्भाव होता है।
विशेष- • अहँ मुद्रा का प्रयोग करने से अनाहत, आज्ञा एवं सहस्रार चक्र नियंत्रित एवं सक्रिय रहते हैं। यह मुद्रा साधक के आन्तरिक दिव्य ज्ञान चक्षुओं को जागृत करती है, दूसरों के मनोभावों को समझने एवं विचार संप्रेषण में सहायक बनती है। इससे शारीरिक और मानसिक प्रगति एवं वैचारिक स्थिरता में वृद्धि होती है।
• यह मुद्रा वायु एवं आकाश तत्त्व को संतुलित करते हुए छाती, फेफड़ा, हृदय, श्वास, मस्तिष्क सम्बन्धी रोगों के निवारण में विशेष उपयोगी है। यह स्मरण शक्ति का वर्धन करती है तथा श्वसन एवं मल-मूत्र की गति में सहायक बनती है।
• थायमस, पीयूष एवं पीनियल ग्रन्थि के स्राव को नियमित करते हुए यह मुद्रा बालकों के शारीरिक, बौद्धिक एवं जननेन्द्रियों के विकास को संतुलित रखती है। इससे साधक तनावमुक्त, प्रसन्न एवं क्रियाशील रहता है। सिद्ध मुद्रा
सिध् धातु + क्त प्रत्यय से निर्मित सिद्ध शब्द संस्कृत के भूतकालिक कृदन्त का रूप है। जिसका सामान्य अर्थ है- सम्पन्न, कार्यान्वित, अनुष्ठित, पूर्ण। दूसरा अर्थ अलौकिक शक्ति से युक्त ऐसा भी किया गया है।
जैन परम्परानुसार जो आत्माएँ अष्ट कर्मों से मुक्त हो जाती है वे सिद्ध कहलाती हैं। सिद्ध आत्माओं का न जन्म होता है और न ही मरण होता है। वे सदाकाल आत्मधर्म में एवं अनन्त ज्ञानादि गुणों में सुख मग्न रहती हैं। सिद्धों का स्थान लोक के अग्रभाग पर माना गया है। इस मुद्रा से सिद्ध अवस्था की प्राप्ति हेतु मनोभूमिका तैयार होती है, व्यक्ति उस लक्ष्य की ओर अग्रसर बनता है फिर जहाँ गति वहाँ प्रगति, जहाँ प्रगति वहाँ पूर्णता निश्चित है।
ॐ हीं णमो सिद्धाणं विधि
• शरीर को सुखासन अथवा अन्य आसन में स्थिर करें। • फिर दोनों हाथ जोड़कर उन्हें हृदय के मध्य स्थिर करें।