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292... जैन मुद्रा योग की वैज्ञानिक एवं आधुनिक समीक्षा विधि
"एषैव हृदये यदा योज्यते तदा हृदय मुद्रा।" ।
कुंभ मुद्रा की भाँति दोनों हाथों की बंधी हुई और संयुक्त की गई मुट्ठियों को जब हृदय भाग पर योजित (स्पर्शित) किया जाता है तब हृदय मुद्रा बनती है। सुपरिणाम
• हृदय मुद्रा साधक के शरीरस्थ अनाहत एवं आज्ञा चक्र को जागृत कर करुणा, क्षमा, विवेक, आत्मिक आनंद आदि गणों को विकसित करती है।
• भौतिक दृष्टि से यह मुद्रा एलर्जी, मानसिक रोग, मस्तिष्क सम्बन्धी समस्याएँ, दमा, हर्निया, खून की कमी, योनि विकार आदि में लाभ पहुँचाती है।
• वायु एवं आकाश तत्व में संतुलन प्रस्थापित करते हुए यह मुद्रा रक्त संचरण, श्वसन, मस्तिष्क आदि के कार्यों को नियमित करती है। इसी के साथ प्राण धारण करने एवं उसके सुनियोजन में सहायक बनती है।
• पीयूष एवं थायमस ग्रंथि के स्राव को संतुलित करते हुए यह मुद्रा शैशव अवस्था में बच्चों के शारीरिक विकास का नियमन करती है और रक्त शर्करा को संतुलित रखती है। 45. शिरो मुद्रा __इस मुद्रा का विवरण विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्रा नं. 4 के समान है। ___यह शिरो मुद्रा प्रतिष्ठा काल में जिनबिम्बों के मस्तक न्यास, नये गाँव में प्रवेश, जिनालय गमन और अधिष्ठायक देवी-देवता को आत्मवश करने के प्रसंग पर की जाती है।
इसका बीज मन्त्र ‘य' है। 46. शिखा मुद्रा
यह मुद्रा विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्रा नं. 5 की भाँति है। इस मुद्रा का उपयोग स्वदेह की रक्षा निमित्त किया जाता है।
इसका बीज मन्त्र 'र' है। 47. कवच मुद्रा
यह मुद्रा विधिमार्गप्रपा में कथित मुद्रा नं. 6 के समान ही है। इस मुद्रा का