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194... जैन मुद्रा योग की वैज्ञानिक एवं आधुनिक समीक्षा
साधक बाह्य जगत से छूटकर अन्तरंग जगत में प्रवेश पा जाता है। भाव धाराएँ निर्मल एवं परिष्कृत बनती हैं।
थॉयमस, एड्रीनल एवं पैन्क्रियाज के स्राव को नियंत्रित करते हुए यह मुद्रा सृजनात्मक एवं कलात्मक कार्यों में रुचि जागृत करती है। बालकों के विकास एवं संस्कारों के निर्माण में सहयोगी बनती है। रोग प्रतिरोधक क्षमता का विकास करते हुए रोगों से बचाव करती है तथा तनाव मुक्त रखती है। 2. यथाजात मुद्रा
यथा- तद्प, जात- उत्पन्न अर्थात जन्म लेते वक्त बालक जिस स्थिति में होता है उस रूप में शरीर की आकृति निर्मित करना यथाजात मुद्रा कहलाती है। हमारी आत्मा शुभाशुभ कर्मों का संयोग पाकर जब मानव का चोला धारण करती है, नये शरीर के रूप में जन्म लेती है तब से बाल्यावस्था तक उसे भगवान का रूप माना जाता है। जैसे भगवान निश्छल हृदयी होते हैं वैसे बालक भी एक अवस्था तक उसी रूप में देखा जाता है। यद्यपि प्रत्येक जीव पूर्वगत
यथाजात मुद्रा