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226... जैन मुद्रा योग की वैज्ञानिक एवं आधुनिक समीक्षा
निम्न दर्शाये चित्र एवं विधि स्वरूप के अनुसार इस मुद्रा में दाएँ हाथ से बाएँ हाथ की अंगुलियों को चटकाया जाता है, वह दुष्कर्मों को चूर करने का संकेत करती है। अत: प्रायश्चित्त विशोधिनी यह नाम सार्थक एवं सुसंगत है।
इस मुद्रा का प्रयोग पाप कर्मों से मुक्त होने के लिए उसके प्रतीक रूप में किया जाता है। विधि "दक्षिणकरस्य वामकराच्छोटनं प्रायश्चित्त विशोधिनी मुद्रा।" ।
बाएँ हाथ से दाहिने हाथ की अंगुलियों को चटकाने पर जो मुद्रा निष्पन्न होती है, उसे प्रायश्चित्त विशोधिनी मुद्रा कहते हैं। सुपरिणाम
• शारीरिक दृष्टि से इसका अभ्यास पंच प्राणों के प्रवाह को नियमित करता है। यह मुद्रा शरीर आदि की दुर्गन्ध, छाती, हृदय, फेफड़ें, भुजा, एलर्जी आदि से सम्बन्धित समस्याओं का शमन करती है। इसके अतिरिक्त वायु प्रकोप, आखों की समस्या, कैन्सर, पाचन समस्या आदि में सहायक बनती है।
इसके प्रभाव से वायु रोग, हृदय रोग एवं रक्त रोग धीरे-धीरे नष्ट हो जाते हैं।
. आध्यात्मिक दृष्टि से यह मुद्रा अनाहत और मूलाधार चक्र को अधिक प्रभावित करती है। इसी के साथ यह संकल्प शक्ति, पराक्रम, परमार्थ, सहकारिता आदि में रुचि जागृत करती है। क्रोध, अत्यधिक भय, अविश्वास, असंतोष एवं धूम्रपान आदि की समस्याओं का शमन करती है।
इससे पापभीरुता का गुण उत्पन्न होता है। अनभिव्यंजित आनन्द की अनुभूति होती है।
थायमस, एड्रीनल एवं पैन्क्रियाज ग्रंथि के स्राव को संतुलित करते हुए यह मुद्रा सम्पूर्ण शरीर में स्फूर्ति का संचरण करती है। संचरण व्यवस्था, रक्त परिभ्रमण, उत्सर्जन एवं विसर्जन आदि में आई गड़बड़ियों को दूर करती है।