Book Title: Jain Mudra Yog Ki Vaigyanik Evam Adhunik Samiksha
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith

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Page 332
________________ 268... जैन मुद्रा योग की वैज्ञानिक एवं आधुनिक समीक्षा जहाँ भयंकर प्रकोप की स्थिति बनती है वहाँ उसके उपशमन हेतु त्रिनेत्र मुद्रा का प्रयोग किया जाता है। इसका बीज मन्त्र ‘छ' है। विधि ___ "संमुखीनकरद्वयांगुष्ठतजन्यौ संयोज्य मध्यमाद्वयं च संयोज्य च त्रिनेत्र मुद्रा।" दोनों हाथों को एक-दूसरे के सम्मुख रखते हुए अंगूठों, तर्जनियों और मध्यमाओं को परस्पर संयोजित करने पर त्रिनेत्र मुद्रा बनती है। सुपरिणाम • त्रिनेत्र मुद्रा को धारण करने से स्वाधिष्ठान एवं विशुद्धि चक्र जागृत एवं सक्रिय होते हैं। यह मुद्रा आत्म नियंत्रण के साथ प्रतिकूल परिस्थितियों से लड़ने की क्षमता उत्पन्न करती है। इससे अतीन्द्रिय क्षमता का जागरण होता है। • भौतिक स्तर पर यह मुद्रा खून की कमी, खसरा, सूखी त्वचा, हर्निया, कामुकता, मासिक धर्म की अनियमितता, प्रजनन अंगों की समस्या, गला, मुँह, कान, नाक आदि के विकारों में फायदा करती है। • जल एवं वायु तत्त्व को संतुलित करते हुए यह मुद्रा प्रजनन एवं रक्त संचरण के कार्य को व्यवस्थित करती है तथा अचेतन मन एवं चित्त संस्थान को प्रभावित करती है। • थायरॉइड, पेराथायरॉइड एवं प्रजनन ग्रंथि के स्राव को संतुलित करते हुए इस मुद्राभ्यास से आवाज, रक्त कैल्शियम, फॉसफोरस आदि नियंत्रित रहते हैं। इससे शांति, धैर्य, सहयोग भावना आदि उत्पन्न होती है। 24. त्रिपुरस मुद्रा ____ यह मुद्रा मिथ्यात्वियों के स्थान पर उन्हें अपने अनुकूल बनाने के उद्देश्य से की जाती है। इसका बीज मन्त्र 'च' है। विधि "संमुखकर द्वयस्य मध्यमाद्वयं मशीतवत् संस्थाप्य तर्जनीद्वयं तदुपरि वक्रीभूतं क्रियते त्रिपुरस मुद्रा।"

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