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आचारदिनकर में उल्लिखित मुद्रा विधियों का रहस्यपूर्ण विश्लेषण ...195 संस्कारों से आबद्ध हो नवीन पर्याय धारण करता है फिर भी एक निश्चित अवधि पर्यन्त मोह-माया, राग-द्वेष के संस्कार सुप्त रहते हैं, अत: बालक की हर क्रिया में भगवद् स्वरूप की प्रतीति होती है।
भगवान का रूप ही हमारा मूल स्वरूप है। उस स्वरूप का चिन्तन करने से विपुल कर्मों की निर्जरा होती है तथा आत्मा स्व-अस्तित्व से परिचित बनती है। ___ आचार दिनकर के अनुसार यह मुद्रा दुष्कर्मों के क्षय निमित्त की जाती है। विधि
_ "हस्तद्वयस्य शिप्राकारकृतस्य यमलरीत्या स्थापितस्य मुखोपरि स्थापनं वन्दनवत् यथाजातमुद्रा।"
दोनों हाथों को शिप्राकार करते हुए एवं मिलाते हुए ललाट के ऊपर स्थापित करना यथाजात मुद्रा है। सुपरिणाम
• शारीरिक स्तर पर यह मुद्रा ब्रेन ट्युमर, मिरगी, सिरदर्द, अनिद्रा, शारीरिक कमजोरी, बवासीर आदि में फायदा करती है।
इस मुद्राभ्यास से पाँवों के जोड़ मजबूत बनते हैं। हाथों की मांसपेशियाँ सशक्त बनती हैं। इससे पृथ्वी तत्त्व अधिक स्वस्थ और सक्रिय बनता है।
• आध्यात्मिक स्तर पर शक्ति केन्द्र (गोनाड्स ग्रन्थि एवं मूलाधार चक्र) का प्रभाव बढ़ जाता है। परिणामस्वरूप प्राण ऊर्जा का निम्न प्रवाह ऊर्ध्वाभिमुख बनता है। ___ यह मुद्रा आज्ञा चक्र (पिच्युटरी ग्रन्थि) को भी प्रभावित करती है तथा दर्शन केन्द्र की शक्ति को अनावृत्त करती है। इन चक्रों के जागरण से भावात्मक अभिव्यक्ति, व्यक्तित्व बोध, समझ और स्मृति स्थिर होती है। मानसिक एवं वैचारिक हीनता, अनियंत्रण, अहंकार, ईर्ष्या, द्वेष आदि के भाव नियंत्रित रहते हैं।
पृथ्वी एवं आकाश तत्त्व को संतुलित करते हुए यह मुद्रा श्वसन एवं विसर्जन के कार्य को सुचारु करती है। इससे सत्य एवं परिस्थिति स्वीकार की शक्ति मिलती है। सहजानन्द एवं दिव्यदृष्टि प्राप्त होती है।