________________
आचारदिनकर में उल्लिखित मुद्रा विधियों का रहस्यपूर्ण विश्लेषण
...215
• सिंह पीछे मुड़कर कभी प्रहार नहीं करता । इसका रहस्य है कि यह साधक की भाँति परित्यक्त साधनों अर्थात भोजन को पीछे मुड़कर नहीं देखता । आगे बढ़ते हुए उदर पूर्ति हो गई तो ठीक, अन्यथा परवाह नहीं करता।
• सिंह अपने भोजन को जहाँ-तहाँ से झूठा भी नहीं करता। एक तरफ का खाने के बाद ही दूसरी तरफ बढ़ता है। इससे वह भक्ष्य अन्य पशुओं के लिए भी उपयोगी बन सकता है। यह प्रवृत्ति परोपकार गुण को इंगित करती है। इस तरह सिंह मानव के लिए प्रेरणास्रोत पशु है ।
प्रतिष्ठा आदि के अवसर पर सिंह मुद्रा सर्व भयों से मुक्त होने के प्रयोजन से दिखाई जाती है।
विधि
“उत्कटिकासनस्थस्य वामकरे भूमौ स्थापिते दक्षिण करे च अभयवत्कृते सिंह मुद्रा । "
उत्कटिकासन में स्थित होकर बाएँ हाथ को भूमि पर स्थापित करें तथा दाएँ हाथ को अभय मुद्रा में रखने पर जो मुद्रा निष्पन्न होती है, उसे सिंह मुद्रा कहते हैं।
"
सुपरिणाम
• शारीरिक स्तर पर इस मुद्रा से अंगुलियों के जोड़ों सम्बन्धी रोग दूर होते हैं। यह कैन्सर, हड्डी की समस्या, कोष्ठबद्धता, फोड़े, जलने के दाग, सिरदर्द, पाचन समस्या, अल्सर, शारीरिक कमजोरी आदि को कम करती है। इससे वीर्य विकार, पेट के विकार एवं मस्तिष्क विकार भी उपशान्त होते हैं।
यह मुद्राभ्यास पृथ्वी और अग्नि तत्त्व को संतुलित रखते हुए साधक के संकल्प बल एवं पराक्रम को बढ़ाता है। यह क्रोध, घृणा, पागलपन, अनियंत्रण, अस्थिरता, अविश्वास आदि के दमन में भी सहायक बनती है। इससे व्यक्ति स्वस्थता का अनुभव करता है।
• आध्यात्मिक स्तर पर ब्रह्मचर्य रक्षा में सहयोग मिलता है।
सिंहत्व भावना का प्रस्फुटन होता है। हृदय में वीरता एवं बल का सुयोग होने से डर भाग जाता है ।
से
मूलाधार एवं मणिपुर चक्र की जागृत अवस्था के सभी लाभ
इस मुद्रा हासिल होते हैं।