________________
आचारदिनकर में उल्लिखित मुद्रा विधियों का रहस्यपूर्ण विश्लेषण ...201
सुपरिणाम
• शारीरिक स्तर पर इस मुद्रा से ब्रेन ट्युमर, मिरगी, सिरदर्द, पागलपन, अनिद्रा, दमा एवं हृदय आदि से सम्बन्धित समस्याओं का निवारण होता है।
नमस्कार मुद्रा से होने वाले सभी लाभ इससे भी मिलते हैं।
शरीर विज्ञान के नियमानुसार इस मुद्रा से वायु तत्त्व और आकाश तत्त्व संतुलित रहते हैं।
यह पीयूष ग्रन्थि एवं थाइमस ग्रन्थि के स्राव को नियमित करती है।
• आध्यात्मिक स्तर पर अहं तत्त्व का विसर्जन और ऋजुता भाव का उन्मेष होता है। यह मुद्रा काम ग्रन्थियों एवं डिम्बाशय की क्रियाओं का निरोध करती है। व्यक्ति को सदा सुखानुभूति का आस्वाद करवाती है।
अनाहत मुद्रा को धारण करने से अनाहत एवं आज्ञा चक्र सक्रिय होते है। यह मुद्रा आन्तरिक चक्षुओं को उद्घाटित करते हुए हृदय में प्रेम, करुणा एवं परोपकार भावना उत्पन्न करती है। व्यक्ति और समिष्टि के सम्बन्ध संयोजन में भी सहायक बनती है। 6. प्रार्थना मुद्रा ___इष्ट देव के समक्ष अथवा इष्ट तत्त्व को आधार बनाकर अन्तर्भावनाओं को अभिव्यक्त करना प्रार्थना कहलाता है। विशिष्ट प्रकार की अभ्यर्थना/याचना प्रार्थना है। दृढ़संकल्प कृत प्रार्थना नि:सन्देह फलदायी होती है। जैन विज्ञान में मन पुद्गल रूप है, मन से उठे विचार भी पौद्गलिक हैं। जैसे वचन पुद्गल सम्पूर्ण लोक में प्रसरित होते हैं वैसे मनोविचार भी पूरे ब्रह्माण्ड में फैलते हैं। उससे साधक की भावनाएँ इष्ट तक पहुँचती है। सिद्धान्तत: सम्यक प्रार्थना से बाधक कर्म निर्जरित होते हैं और फलस्वरूप इष्ट वांछा की प्राप्ति होती है।
आचार दिनकर में यह मुद्रा वांछित फल प्रदान करने वाली कही गई है। प्रार्थना मुद्रा मनोवांछित कार्य की सिद्धि हेतु की जाती है। विधि
"प्रसारितौ करौ योजितकरभौ प्रार्थना मुद्रा।" दोनों हाथों को फैलाते हुए हथेलियों को सम्मिलित करना प्रार्थना मुद्रा हैं।