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विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्राओं का सोद्देश्य स्वरूप....
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है
जैन धर्म मूलतः निवृत्तिमूलक धर्म है । परन्तु क्षणैः-क्षणैः क्रिया मूलक विधि-विधानों का भी इसमें प्रवेश होता रहा है। इन विधानों का एक मुख्य अंश मुद्रा प्रयोग। पूजा-उपासना सम्बन्धी विधान हो अथवा व्रत ग्रहण सम्बन्धी विधान या फिर प्रतिष्ठा, आमंत्रण आदि सभी को मुद्रा प्रयोग द्वारा ही सम्पन्न किया जाता है । 'विधिमार्गप्रपा' जैन विधि-विधानों की आधारशिला है। प्रायः हर प्रकार के विधान का उल्लेख इसमें प्राप्त होता है। वर्तमान प्रचलित अधिकांश क्रिया - अनुष्ठान इसी के अनुसार करवाए जाते हैं । चर्चित अध्याय में उसी ग्रन्थ में उल्लेखित समस्त मुद्राओं के विस्तृत वर्णन किया गया है। आराधक वर्ग इस जानकारी के माध्यम से क्रिया-आराधनाओं में मनोयोगपूर्वक जुड़ सकें एवं यथेच्छ फल की प्राप्ति कर सकें यही आन्तरिक प्रयास ।