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विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्राओं का सोद्देश्य स्वरूप......165 लौकिक दृष्टि से किसी नगर आदि में अथवा नगर के बाह्य भाग में बाघ आदि हिंसक जानवर प्रवेश कर जाए तो उन्हें भगाने के लिए ढोल बजाते हुए जाते हैं। उक्त वर्णन से यह प्रमाणित होता है कि डमरू एक ऐसा वाद्य है जिसकी ध्वनि को सुनने से किसी तरह का भय उपस्थित हो तो उसका निवारण होता है।
प्रतिष्ठा आदि के अवसर पर आमन्त्रित देवी-देवताओं के द्वारा वातावरण को नृत्यमय एवं अधिक मनोहर बना दिया जाए संभवत: इसी प्रयोजन से डमरू मुद्रा दिखाई जाती है। विधि "दक्षिणकरेण मुष्टिं बद्ध्वा कनिष्ठिकांगुष्ठौ प्रसार्य डमरू कवच्चालयेदिति डमरूक मुद्रा।" ___ दाहिने हाथ की मुट्ठी बांधकर तथा कनिष्ठिका और अंगूठे को प्रसारित करके डमरू के समान हाथ को चलाने पर डमरूक मुद्रा बनती है। सुपरिणाम
• शारीरिक स्तर पर इस मुद्रा के प्रभाव से त्रिदोषों का नाश होकर शरीर स्वस्थ रहता है।
यह मुद्रा आकाशतत्त्व और जलतत्त्व को नियन्त्रित रखती है। इससे ग्रीवा सम्बन्धी रोगों का निवारण होता है।
• आध्यात्मिक स्तर पर यह मुद्रा नादानुसन्धान की प्रवृत्ति को विकसित करती है, जिससे साधक नाद ब्रह्म की ध्वनि को स्पष्ट सुन सकता है। यह मुद्रा सुषुप्त शक्तियों को जागृत करती है।
इससे स्वाधिष्ठान और आज्ञा चक्र जाग्रत होते हैं।
आज्ञा चक्र के सक्रिय होने से चेतना नियन्त्रण की सामर्थ्य शक्ति विकसित हो जाती है।
. स्वाधिष्ठान चक्र के जागृत होने पर व्यक्ति में उत्साह और स्फूर्ति आती है तथा सुस्तीपन आदि दूर होते हैं। विशेष
• एक्यूप्रेशर चिकित्सज्ञों के अनुसार डमरूक मुद्रा बनाते समय मूलाधार चक्र पर दबाव पड़ता है जिसके कारण जननेन्द्रिय तन्त्र स्वस्थ रहता है। इससे अनियमित मासिक धर्म, लैंगिक विकार, कमर के नीचे के हिस्से के रोग, नपुंसकता आदि विकार शान्त होते हैं।