________________
130... जैन मुद्रा योग की वैज्ञानिक एवं आधुनिक समीक्षा
विधि
"वामकरांगुलीरूवीकृत्य मध्यमां मध्ये कुर्यादिति द्वितीया।" बायें हाथ की अंगुलियों को ऊपर की ओर करके मध्यमा अंगुली को हथेली के मध्य में स्थिर करने पर द्वितीय परमेष्ठी मुद्रा बनती है।
सुपरिणाम
परमेष्ठी मुद्रा-2 • बाह्य दृष्टि से यह मुद्रा शारीरिक एवं मानसिक संतुलन उत्पन्न कर रक्त संचार को नियमित करती है।
साधक को पूर्ण स्वस्थता प्रदान करती है। इससे पृथ्वीतत्त्व एवं आकाश तत्त्व सम्बन्धी विकार समाप्त होने के कारण इन तत्त्वों की सक्रियता बढ़ जाती है। शारीरिक ऊर्जा का उत्पादन होता है और वह ऊर्जा ऊर्ध्वगामी बनती है।
• आध्यात्मिक दृष्टि से अपरिग्रह भावना का आरोहण होता है। प्रेम, दया, करुणा, परोपकार, सेवा आदि मानवीय गुण अभिवृद्ध होते हैं। काम, क्रोध, मद, मोहादि षड्रिपु का शमन होता है।
इससे शक्ति केन्द्र (गोनाड्स ग्रन्थि एवं मूलाधार चक्र) प्रभावित होने से साधना का दर्जा उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है। ज्योति केन्द्र (पीनियल ग्रन्थि