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विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्राओं का सोद्देश्य स्वरूप......143 सुपरिणाम
• शारीरिक स्तर पर यह मुद्रा कर्म शक्ति प्रदान करती है। शारीरिक थकान को दूर करती है। मूत्र सम्बन्धी रोगों में लाभकारी सिद्ध होती है।
इस मुद्रा से वायुतत्त्व एवं आकाश तत्त्व सुचारु रूप से कार्य करते हैं। जिससे गैसजनित, वायुजनित एवं हृदयजनित समस्त बीमारियों से राहत मिलती है। __इससे विशुद्धिचक्र की ऊर्जा ऊर्ध्वाभिमुख बनती है।
• आध्यात्मिक स्तर पर इस मुद्रा के दीर्घाभ्यास से साधक को सबीज समाधि की प्राप्ति होती है जिससे साधक की आत्मा अहम तत्त्व से परे पहुँच जाती है तथा सांसारिक बन्धनों और मोह-माया से ऊपर उठ जाती है। ____ यह साधक के ब्रह्मचर्य तेज को वृद्धिमान करती है। मनोशक्ति को अभिवृद्ध करने एवं बाहर की ओर निरन्तर बहती हुई विक्षिप्त प्रवृत्तियों का निरोध करने के लिए अत्यन्त उपयोगी मुद्रा है। यह मुद्रा सद्प्रवृत्तियों के जागरण में भी निमित्तभूत बनती है। विशेष
• एक्यूप्रेशर के अनुसार इस मुद्रा में जिस बिन्दु के ऊपर दबाव पड़ता है उससे रक्त की अधिक गर्मी कम होती है तथा गुदा के समीपवर्ती क्षेत्र एवं मस्तिष्क में प्रवाहित रक्त संचरण और ऊर्जा संचरण नियमित होता है।
• यह मुद्रा कमर दर्द, घुटना दर्द, मेरुदण्ड के दोष, कब्ज एवं मस्से की बीमारी में लाभ पहुँचाती है।
• इससे सिर में रूसी (खोरा), बाल झड़ना, चर्म रोग, पित्ती आदि का निवारण होता है। 53. योनि मुद्रा (प्रथम)
संस्कृत भाषीय योनि शब्द अनेक अर्थों का बोधक है। योनि के मुख्य रूप से निम्न अर्थ हैं- गर्भाशय, जननेन्द्रिय, जन्म स्थान, मूलस्थान, उद्गम स्थल। यहाँ योनि से अभिप्राय मूल स्थान एवं उद्गमस्थल है।
इस मानव देह में नौ अशुचि स्थान हैं जहाँ से प्रतिसमय अशुचि द्रव्य बहते रहते हैं। इन द्वारों को अशुद्ध द्रव्यों का उद्गम या मूलस्थान कहा जा सकता है। इस मुद्रा के द्वारा नौ द्वारों को अवरुद्ध कर आभ्यन्तर शक्ति को जागृत किया जाता