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विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्राओं का सोद्देश्य स्वरूप... ... 145
54. योनि मुद्रा (द्वितीय)
आचार्य जिनप्रभसूरि ने योनि मुद्रा के दो प्रकारान्तर बताए हैं। द्वितीय प्रकार का स्वरूप निम्न है -
विधि
तर्जनीभ्यामनामिके
संगृह्य
"ग्रथितानामंगुलीनां मध्यपर्वस्थांगुष्ठयोर्मध्यमयोः सन्धानकरणं योनिमुद्रा द्वितीया । "
दोनों हाथों की अंगुलियों को परस्पर गूंथें । फिर दोनों तर्जनी अंगुलियों के द्वारा दोनों अनामिका अंगुलियों को सम्यक प्रकार से ग्रहण करें। फिर दोनों मध्यमा अंगुलियों के मध्य पर्व पर द्वयांगुष्ठों को स्थिर कर उन्हें एक-दूसरे से योजित करने पर दूसरी योनि मुद्रा बनती है।
योनि मुद्रा (द्वितीय)
सुपरिणाम
• शारीरिक स्तर पर यह मुद्रा मूत्र सम्बन्धी एवं कर्ण सम्बन्धी रोगों में लाभ देती है। इस मुद्रा की मदद से साधक आकाशतत्त्व एवं अग्नि तत्त्व की