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विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्राओं का सोद्देश्य स्वरूप......127 • आध्यात्मिक स्तर पर यह मुद्रा परिग्रह, ममत्त्व और आसक्ति भाव को न्यून करती है। इससे क्रोधादि कषायों में कमी आती है। इसी के साथ स्वनियंत्रण, व्यक्तित्व बोध, आत्मविश्वास का जागरण तथा हीन भावनाओं का नाश होता है।
यह मुद्रा लोभ कषाय को मंद करने में भी सहयोगी है। यह उच्चतर चेतना का विकास करती है। हमारी वृत्तियों को सहज रूप से शान्त रखती है। इससे मणिपुर एवं मूलाधार चक्र की ऊर्जा सन्मार्गगामी बनती है।
एड्रिनल, पैन्क्रियाज एवं प्रजनन ग्रंथियों के स्राव को संतुलित करते हुए यह मुद्रा साधक को साहसी, निर्भीक, सहनशील, आशावादी, तनावमुक्त, प्रभावशाली, आकर्षक एवं समताधारी बनाती है। विशेष
• एक्यूप्रेशर मेरिडियन थेरेपी के अनुसार संहार मुद्रा के द्वारा पाचन तन्त्र के विकार, वायुजन्य दोष, डायबिटिज, पित्ताशय एवं आमाशय की सूजन, गले की सूजन आदि का निवारण होता है।
• इस मुद्रा से प्रभावित दबाव केन्द्र शरीर की समस्त क्रियाओं को सुचारु रूप से गतिशील करते हैं।
• इससे हृदय, मस्तिष्क, श्वास, स्नायु तन्त्र के विकारों में कमी आती है।
देवदर्शन आदि करने में उपयोगी मुद्राएँ 45. परमेष्ठी मुद्रा (प्रथम)
जैन परम्परा में अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं साधु ये पाँच परमेष्ठी कहे जाते हैं। इस मुद्रा में परमेष्ठी की प्रतिकृति बनायी जाती है, इसलिए इसे ‘परमेष्ठी मुद्रा' ऐसा नाम दिया गया है।
__ अर्हत् धर्म में पंच परमेष्ठी को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। जैन धर्म में प्राणीमात्र के लिए समान रूप से आराध्य नवकारमन्त्र पंच परमेष्ठी का प्रतिनिधित्व करता है। उपासना का मुख्य आधार परमेष्ठी को माना गया है, जाप साधना का मुख्य अवलंबन परमेष्ठीपद है, मन्त्र स्मरण का मुख्य परमेष्ठी है, सिद्धचक्र का मूल परमेष्ठी है। प्रत्येक कार्य चाहे लौकिक हो या लोकोत्तर, पंच परमेष्ठी का स्मरण करके ही प्रारम्भ किया जाता है।