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122... जैन मुद्रा योग की वैज्ञानिक एवं आधुनिक समीक्षा प्रसारित करें तथा कनिष्ठिका और अंगूठे को परस्पर में संयोजित कर नीचे की ओर गिराने से शूल मुद्रा बनती है।
विधिमार्गप्रपा में शूल मुद्रा दो प्रकार की कही गई है। द्वितीय प्रकारान्तर निम्न है____ "पताकाकारं करं कृत्वा कनिष्ठिकामंगुष्ठेनाक्रम्य शेषांगुली प्रसारयेदिति शूलमुद्रा द्वितीया।"
किसी भी एक हाथ को पताका के समान करके अंगूठे से कनिष्ठिका अंगुली को आक्रमित करते हुए शेष अंगुलियों को प्रसारित करने पर दूसरे प्रकार की शूल मुद्रा बनती है।
शूल मुद्रा-2 सुपरिणाम
• शारीरिक दृष्टि से प्रथम प्रकार की शूल मुद्रा श्वास की गति को धीमा कर मन की चंचलता को शान्त करती है। सम्पूर्ण शरीर में रक्त संचालन की गति को संतुलित करती है जिससे शरीर में शक्ति का संचार होता है। इस मुद्रा के