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120... जैन मुद्रा योग की वैज्ञानिक एवं आधुनिक समीक्षा
माना गया है। योगी पुरुषों के अभिप्राय से यह मुद्रा निष्कारण बाधा पहुँचाने वाले देवी-देवताओं की दुष्टशक्तियों को निस्तेज कर देती है ।
इस तरह पाश मुद्रा व्यवहारिक दृष्टि से दुष्ट शक्तियों को प्रभावहीन तथा आध्यात्मिक दृष्टि से क्रोधादि कषायों के बन्धन से छुटकारा पाने हेतु की जाती है। विधि
"परस्परोन्मुखौ मणिबन्धाभिमुखकरशाखौ करौ कृत्वा ततो दक्षिणांगुष्ठ-कनिष्ठाभ्यां वाममध्यमानामिके तर्जनीं च तथा वामांगुष्ठकनिष्ठाभ्यामितरस्य मध्यमानामिके तर्जनीं समाक्रामेयदिति पाशमुद्रा । "
दोनों हाथों की अंगुलियों को परस्पर में विपरीत और मणिबन्ध के अभिमुख (आमने-सामने) करें। फिर दाएं हाथ के अंगूठे और कनिष्ठिका के द्वारा बायें हाथ की मध्यमा, अनामिका एवं तर्जनी अंगुली को आक्रमित करें तथा बायें हाथ के अंगूठे और कनिष्ठिका के द्वारा दाएं हाथ की मध्यमा, अनामिका एवं तर्जनी को आक्रमित करने पर पाश मुद्रा बनती है।
सुपरिणाम
• शारीरिक स्तर पर इस मुद्रा से अग्नि आदि पाँचों तत्त्व नियन्त्रित होते हैं। मुख भाग अधिक सक्रिय होता है। पाचन संस्थान की सभी ग्रन्थियाँ सशक्त बनती हैं। रक्त प्रवाह में किसी तरह के अवरोध पैदा नहीं होते हैं।
आध्यात्मिक स्तर पर यह मुद्रा आभ्यन्तर विकारों का उपशमन
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करती है।
योग विज्ञान के अनुसार मूलाधार (गोनाड्स ग्रन्थि) एवं मणिपुर (एड्रीनल ग्रन्थि) के स्राव संतुलित होते हैं, आत्मा की तेजस्विता बढ़ती है, शक्ति का संचय होता है और वृत्तियाँ शान्त होती हैं ।
विशेष
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एक्यूप्रेशर चिकित्सा के निर्देशानुसार पाश मुद्रा से हृदय एवं हृदय आवरण की ऊर्जा सकारात्मक होती है, शुद्ध रक्त धमनियों से शरीर में पहुँचता है, शरीर का उष्ण स्वभाव कम होता है, छाती का तनाव दूर होता है तथा धमनियों में आई रुकावट दूर होती है। इससे जननेन्द्रिय सम्बन्धी गड़बड़ियाँ दूर होती हैं तथा यह लघु मस्तिष्क नियन्त्रित रहत है।