________________
विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्राओं का सोद्देश्य स्वरूप......123 द्वारा अग्नि एवं आकाश तत्त्व नियंत्रित होने से तत्सम्बन्धी बीमारियों से राहत मिलती हैं।
बुखार, सिरदर्द, अनिद्रा, कानों के संक्रमण, वायु, अपच, थकान, कमजोरी आदि में यह मुद्रा लाभ पहुँचाती है।
• आध्यात्मिक दृष्टि से यह मुद्रा तामसिक भावों का उच्छेद एवं राजसिक भावों पर नियन्त्रण करती है। यह मन की शक्ति को सक्रिय कर प्रमाद दशा को भी दूर करती है।
इसका अभ्यास बुद्धि को कुशाग्र बनाकर दर्शन केन्द्र के सभी लाभ प्राप्त करवाता है। यह मुद्रा क्रोधादि कषायों के नियंत्रण में एवं आत्मविश्वास, परोपकार, उदारता आदि भावों के जागरण में अत्यन्त उपयोगी है।
___ द्वितीय प्रकार की शूल मुद्रा बाह्य दृष्टि से त्वचा को कोमल बनाती है। त्रिदोषों का शमन करती है। जल तत्त्व की कमी से उत्पन्न विकृतियों, चेहरे पर होने वाली फंसियों एवं कील-मुहासों में फायदा करती है।
यह मुद्रा रक्त विकार को दूर कर चर्म रोगों को मिटाने में भी लाभदायक सिद्ध हुई है।
आध्यात्मिक स्तर पर यह मुद्रा साधक को तेजस्वी बनाती है एवं उसे गुणातीत अवस्था की अनुभूति करवाती है। इससे आज्ञा चक्र और मणिपुर चक्र के प्राय: सभी लाभ प्राप्त होते हैं।
शूल मुद्रा के अभ्यास से पीयूष, एड्रिनल एवं पैन्क्रियाज के स्राव संतुलित होते हैं। यह जीवन पद्धति, स्वभाव एवं मनोवृत्ति को नियंत्रित रखती है और साधक को तनावमुक्त कर प्रसन्नता एवं समभाव का निर्माण करती है। विशेष ___• एक्यूप्रेशर प्रणाली के अनुसार प्रथम शूल मुद्रा के दाब बिन्दु विष युक्त भोजन के प्रभाव को क्षीण करता है, सर्प विष को न्यून करता है एवं बदहजमी दूर करता है।
• बेहोशी, अर्द्ध बेहोशी, सदमा लगना, दौरे पड़ना, मस्तिस्क सम्बन्धी सभी रोगों में यह मुद्रा महत्त्वपूर्ण है।
• यह मुद्रा पीयूष ग्रन्थि, लघुमस्तिष्क, स्वसंचालित स्नायु तंत्र, नाक, बाईं आँख को नियंत्रित करती है।