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विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्राओं का सोद्देश्य स्वरूप......117 आभ्यन्तर प्रकाश को प्रकट करती है जिससे अन्तर्मन निर्मल एवं स्वच्छ रहता है।
इस तरह श्रीमणि मुद्रा के माध्यम से बाह्य समृद्धि और आभ्यन्तर समृद्धि को उपलब्ध किया जाता है। विधि ___"बद्धमुष्टेर्दक्षिणकरस्य मध्यमांगुष्ठ तर्जन्यौ मूलात् क्रमेण प्रसारयेदिति श्रीमणि मुद्रा।"
दाहिने हाथ की मुट्ठी बांधकर क्रमश: मध्यमा, अंगूठा और तर्जनी अंगुलियों को मूल स्थान से प्रसारित करना श्रीमणि मुद्रा है। सुपरिणाम
• शारीरिक स्तर पर इस मुद्रा से अग्नि एवं आकाश तत्त्व सबसे अधिक प्रभावित होते हैं। जिससे तत्सम्बन्धी बीमारियों का निवारण होता है। यह मुद्रा ब्लडप्रेशर रोग में लाभ पहुँचाती है। इससे पाचन की क्रिया सुचारु रूप से प्रवर्तमान रहती है। इसका अभ्यास हृदय एवं उदर सम्बन्धी तकलीफों में विशेष लाभदायी है।
इस मुद्रा से मणिपुर चक्र और अग्नि तत्त्व दोनों का संयोग होने से उष्णता का तापमान बढ़ जाता है, जिसके फलस्वरूप सर्दी के सभी रोगों में फायदे होते हैं।
• आध्यात्मिक स्तर पर इसका प्रयोग साधक को इहलौकिक प्रपंचों से मुक्त रखता है। यह मुद्रा निरर्थक कर्म बन्धनों से बचाती है तथा निष्काम कर्म की भावना को उद्भूत करती है। ... यह मुद्रा ब्रह्मचर्य पालन में भी सहायक है। इससे ज्योति केन्द्र सक्रिय होने से कषायों-नौकषायों का उपशमन होता है। विशेष
• एक्यूप्रेशर मेरीडियनोलोजी के अनुसार इस मुद्रा में मूलाधार चक्र पर दबाव पड़ता है जिससे मूत्राशय सम्बन्धी रोगों का शमन होता है, शरीर में तरल पदार्थों का प्रवाह बढ़ता है तथा किडनी की ऊर्जा बढ़ती है। इससे कमजोरी, अण्डकोष में सूजन, हाथ-पैर ठण्डे पड़ना, यौन रोग समस्या, अनियमित मासिक धर्म, नपुंसकता आदि दोष भी दूर होते हैं।