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विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्राओं का सोद्देश्य स्वरूप......111
सिद्ध शिला पर स्थिर हो जाती है।
इस तरह सर्प मुद्रा के पीछे अनेक प्रयोजन मालूम होते हैं।
विधि
"दक्षिणहस्तं संहतांगुलिमुन्नमय्य सपफणावत् किंचिदाकुंचयेदिति सर्प मुद्रा । "
दाहिने हाथ की अंगुलियों को परस्पर मिलाकर ऊर्ध्वाभिमुख करें। फिर सर्प फण की तरह किंचित झुकाने पर सर्प मुद्रा बनती है ।
सुपरिणाम
• शारीरिक दृष्टि से यह मुद्रा अनियन्त्रित ऊर्जा को नियन्त्रित करती है। यह स्वर तंत्र एवं सुनने की क्रिया पर भी नियंत्रण रखती है। इसके द्वारा हृदय, छाती, भुजा आदि से सम्बन्धित समस्याओं का निवारण सहज होता है।
इससे आकाश एवं वायु तत्त्व सम्बन्धी असंतुलन दूर होता है। संचरण, श्वसन तंत्र आदि के कार्य नियमित होते हैं। मस्तिष्क एवं प्रजनन सम्बन्धी रोगों की संभावनाएँ घट जाती हैं । चर्म रोग एवं जोड़ों के दर्द में राहत मिलती है। यह मुद्रा हृदय जनित रोगों के निदान में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है ।
आध्यात्मिक दृष्टि से यह मुद्रा साधक को आध्यात्मिक शक्ति प्रदान करती है। इसी के साथ सत्य-असत्य का विवेक दर्शाते हुए जन्म-मरण के भय से मुक्ति दिलाती है।
इस मुद्रा से ब्रह्म एवं अनाहत चक्र अपने स्वरूप की ओर अभिमुख बनते हैं। जिससे आन्तरिक आनंद की अनुभूति होती है तथा कला, नृत्य, संगीत, कविता आदि में रुचि जागृत होती है।
पीयूष एवं थायमस ग्रंथियों के स्राव को संतुलित कर यह मुद्रा जीवन पद्धति, स्वभाव एवं प्रवृत्तियों को नियंत्रित करती है ।
साधक को तनाव मुक्त, प्रसन्नचित्त एवं उत्साहित रखती है और कामुकता पर नियंत्रण करती है।