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विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्राओं का सोद्देश्य स्वरूप......75
विधि
" अंगुष्ठे तर्जनीं संयोज्य शेषांगुली प्रसारणेन पाशमुद्रा । "
अंगूठे के अग्रभाग से तर्जनी के अग्रभाग को संयोजित कर शेष अंगुलियों को प्रसारित करने पर पाश मुद्रा बनती है ।
पाश मुद्रा
सुपरिणाम
• शारीरिक दृष्टि से यह मुद्रा वायु तत्त्व को संतुलित रखती है । अभ्यासी साधकों के अनुसार यह श्वास गति को धीमाकर साधक को दीर्घायु प्रदान करती है। अनिद्रा के रोग में रामबाण औषधि की भाँति कार्य करती है। शरीर की मुख्य ग्रन्थियों को संयमित रखती है। मस्तिष्क सम्बन्धी रोगों जैसे चिड़चिड़ापन, अस्थिरता, बैचेनी, विषाद, घबराहट आदि को दूर करती है।
• मानसिक दृष्टि से इसका अभ्यास मन की चंचलता को शान्त करता है। इस मुद्रा का मस्तिष्क पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है । मानसिक तनाव दूर होते हैं और स्मरण शक्ति बढ़ती है।