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अध्याय-2
विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्राओं का सोद्देश्य
स्वरूप एवं उसके विभिन्न प्रभाव
धार्मिक उपासना एवं आध्यात्मिक साधना की समग्रता का एक आधार मुद्रायोग को माना गया है। मुद्रा शब्द अनेकार्थक है। साधना के क्षेत्र में इसके व्यावहारिक और यौगिक उभय अर्थ प्राप्त होते हैं। प्रसंगतः कहा जा सकता है कि मुद्राएँ भावों का प्रतिबिम्ब होती हैं। मुद्रण शब्द मुद्रा से निर्मित है जिसका सांकेतिक अर्थ होता है वर्णमाला के माध्यम से मनोभावों की अभिव्यक्ति करना। जिस तरह मुद्रित (टंकित) शब्दों और वाक्यों द्वारा लेखक के भावों से अवगत हो जाते हैं उसी तरह शरीर की मुद्राओं से अन्तर्भावों का प्रकटीकरण हो जाता है।
शरीर से जितने प्रकार के हाव-भाव किए जाते हैं उतनी ही मुद्राएँ बन जाती है। इस तरह हजारों मुद्राएँ मानी जा सकती है। इस अध्याय में मुख्य रूप से उन मुद्राओं का विवरण दिया जा रहा है जिनका उपयोग प्रतिष्ठा-पूजा आदि प्रमुख विधानों में के समय शरीर शुद्धि, हृदय शुद्धि, स्थान शुद्धि, देवता आह्वान, देवतुष्टि, असुर शक्तियों का निवारण, बिम्बरक्षा, देहरक्षा आदि के लिए किया जाता है। __एक ओर ये मुद्राएँ प्रासंगिक कार्यों को निर्विघ्न रूप से सम्पन्न करती हैं वहीं दूसरी ओर इन मुद्राओं के प्रयोग से शरीर निरोगी, मन स्वस्थ और चेतना ऊर्ध्वाभिमुखी बनती है। जैन मुद्राओं की प्रमुख विशेषता यह है कि इनका प्रयोग रोगोपचार के उद्देश्य से नहीं किये जाने पर भी ये विविध दृष्टियों से लाभ पहुँचाती हैं। इनकी साधना से विकृत तत्त्वों का निर्गमन एवं बीमारियों का उपशमन स्वत: होता है।