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विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्राओं का सोद्देश्य स्वरूप......53 सुरभि मुद्रा इच्छित कामनाओं की परिपूर्ति एवं सहयोगी देवों की उपस्थिति के उद्देश्य से की जाती है। विधि
"अन्योऽन्यग्रथितांगुलीषु कनिष्ठिकानामिकयोर्मध्यमातजन्योश्च संयोजनेन गोस्तनाकारा धेनुमुद्रा।" ।
- दोनों हाथों की अंगुलियों को एक-दूसरे में गूंथकर दाहिने हाथ की तर्जनी के अग्रभाग को बाएँ हाथ की मध्यमा के अग्रभाग से स्पर्श करवाएँ तथा बाएँ हाथ की तर्जनी के अग्रभाग को दाहिने हाथ की मध्यमा के अग्रभाग से स्पर्श करवाएँ।
इसी तरह दाहिने हाथ की अनामिका के अग्रभाग को बाएँ हाथ की कनिष्ठिका के अग्रभाग से स्पर्श करवाएँ तथा बाएँ हाथ की कनिष्ठिका के अग्रभाग को दाहिने हाथ की अनामिका के अग्रभाग से स्पर्श करवाएँ। बताई निर्दिष्ट विधि के अनुसार अंगुलियों के अग्रभागों को परस्पर संयोजित कर उसे अधोमुख करना धेनु मुद्रा है। सुपरिणाम
यह एक चमत्कारिक मुद्रा है। इसके मुख्य तौर पर निम्न लाभ देखे जाते हैं
• शारीरिक दृष्टि से यह मुद्रा देह को स्वस्थ कर मानसिक शान्ति प्रदान करती है। रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाती है। शरीर को सुडौल एवं सुदृढ़ बनाती है। शरीरस्थ वात-पित्त-कफ को संतुलित रखती है।
• आध्यात्मिक दृष्टि से यह मुद्रा मैत्री, करुणा, दया, सेवा, परोपकार आदि शुभ भावनाओं को जन्म देती है। ____ यदि शुभ संकल्प के साथ यह मुद्रा की जाए तो वह निश्चित रूप से इच्छित फल देती है। विशेष
. एक्यूप्रेशर मेरिडियनोलोजी के मुताबिक सुरभि मद्रा लसिका ग्रन्थि में आयी हुई सूजन को ठीक करती है। इससे आँख, कान, गठिया सम्बन्धित रोगों का उपचार होता है।