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विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्राओं का सोद्देश्य स्वरूप......57 तरह के प्रयत्न की आवश्यकता नहीं होती। इसे स्वाभाविक एवं सहज मुद्रा भी कहा जा सकता है। __ इस मुद्रा के माध्यम से प्रतिष्ठा आदि शुभ अनुष्ठानों को निर्विघ्नत: सम्पन्न करने हेत् देवी-देवताओं की उपस्थिति का भाव प्रकट किया जाता है तथा उनके उपस्थिति की मानसिक कल्पना की जाती है। भावनाओं की तरतमता के आधार पर यह कल्पना साकार भी बनती है। किन्तु उन अदृश्य शक्तियों को चर्मचक्षुओं से नहीं देखा जा सकता। हाँ! अनभूति के स्तर पर शक्तियों का आभास अवश्य किया जा सकता है और करते भी हैं। विधि
"इयमेवाधोमुखा स्थापनी।" ___ आवाहनी मुद्रा को अधोमुख (उल्टा) करने पर स्थापनी मुद्रा बनती है। सुपरिणाम
• शारीरिक दृष्टि से श्वासजनक रोगों पर नियंत्रण होता है। इस मुद्राभ्यास से दैवी शक्तियाँ प्राप्त होती हैं। यह मुद्रा आकाश तत्त्व को अधिक प्रभावित करती है। इससे कर्णशक्ति अधिक संवेदनशील होने से साधक प्रत्येक बात को ध्यान से सुनता है। इससे कंठ सम्बन्धी रोगों में आराम मिलता है और वाणी प्रखर होती है।
चक्र विशेषज्ञों के अनुसार यह मुद्रा मूलाधार एवं स्वाधिष्ठान चक्र को जागृत कर मानसिक रोगों के निवारण तथा क्रोध, पागलपन, घृणा, अति राग, अस्थिरता, उपेक्षा भाव, स्वयं पर अनियंत्रण आदि का निवारण करती है। शराब आदि नशा मुक्ति में भी यह सहायक हो सकती है।
शारीरिक समस्याएँ जैसे कैन्सर, कोष्ठबद्धता, घुटने एवं जोड़ों का दर्द पुरुष प्रजनन तंत्र सम्बन्धी समस्या, खून की कमी, गर्भाशय सम्बन्धी विकार में यह मुद्रा लाभ पहुँचाती है।
पृथ्वी एवं जल तत्त्व को संतुलित करते हुए यह मुद्रा प्रजनन एवं विसर्जन के कार्यों को नियमित करती है। इससे विचारों के नियंत्रण एवं स्थिरता में सहायता मिलती है।
प्रजनन ग्रन्थियों के स्राव को नियंत्रित करते हुए यह कामेच्छा का नियंत्रण, प्रजनन अंगों का विकास तथा स्त्रियोचित एवं पुरुषत्व के लक्षणों का निर्माण