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विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्राओं का सोद्देश्य स्वरूप......65 सुपरिणाम
• शारीरिक स्तर पर यह मुद्रा आँख सम्बन्धी रोगों को दूर करने में लाभदायक मानी गई है। यह हृदय सम्बन्धी रोगोपचार में भी सहायक बनती है। पृथ्वी तत्त्व की कमी से होने वाले रोग जैसे दुर्बलता, कमजोरी, झुर्रियाँ पड़ना आदि इससे ठीक होते हैं।
• मानसिक स्तर पर इस मुद्रा प्रयोग से उच्चस्तरीय मनोभूमिका का निर्माण होता है। चंचल बुद्धि शान्त एवं स्थिर बनती है। लघु मस्तिष्क संतुलित रहता है।
• मौलिक स्तर पर यह साधक में आध्यात्मिक शक्ति का विकास करती है। असम्प्रज्ञात समाधि की अवस्था को प्राप्त करवा सकती है। इससे साधक दिव्य ज्ञान की अनुभूति के हिलोरे लेने लगता है। विशेष
• एक्यूप्रेशर प्रणाली के अनुसार इस मुद्रा में जो दाब केन्द्र बिन्दु हैं उससे जन्मजात गूंगेपन एवं बहरेपन का उपचार संभव है। यह इस रोग का मास्टर पाइन्ट है।
• स्थापन मुद्रा में जिन बिन्दुओं पर दबाव पड़ता है उससे हृदय एवं यकृत ऊर्जा में स्थायित्व आता है, ज्ञानेन्द्रियाँ खुलती है तथा अनावश्यक गर्मी कम होती है।
• चक्कर आना, गर्दन में दर्द होना, ऐंठन, बेहोशी के दौरे पड़ना, नाक से रक्त आना, जीभ का लकवा, सूनापन, मिरगी, मस्तिष्क की क्षति के कारण अपंग होना आदि तकलीफें ठीक होती हैं। __इस मुद्रा के दाब बिन्दु हृदय धड़कन की गति एवं वॉल्व का नियन्त्रण भी करते हैं। यह क्षायिक पदार्थों को उल्टी, खांसी, छींक आदि के माध्यम से बाहर निकाल देती है।