________________
खण्ड : प्रथम
जैन धर्म में ध्यान का ऐतिहासिक विकास क्रम
AMERICASSORati
श्रमण संस्कृति
श्रमण परम्परा का भारतीय संस्कृति में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। श्रमण शब्द श्रम् धातु से निष्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है - परिश्रम करना, उद्योग करना। पालि प्राकृत भाषा में यह शब्द 'समण' है, जो सम् धातु से निर्मित है। ये शब्द ही संकेत करते हैं कि श्रमण श्रम, शम और सम के धरातल पर स्थित है। 'श्रम' शब्द का अर्थ पुरुषार्थ, उद्यम या आत्म-पराक्रम है। 'शम' का अर्थ निर्वेद या वैराग्य है। 'सम' का अर्थ समता, समत्व अथवा सर्व भूतों को आत्मवत् समझना है। इस प्रकार श्रमण शब्द एक ऐसे अध्यात्म - कर्मयोगी का सूचक है जिसके जीवन में अपने परम लक्ष्य को प्राप्त करने का न केवल उत्साह ही होता है वरन् उस दिशा में अग्रसर होने का पुरुषार्थ या सतत उद्यम भी होता है। ऐसा साधक आत्मोन्मुख होता है। वह भौतिक उत्कर्ष को अपना परम लक्ष्य नहीं मानता, उसे सांसारिक जीवन की एक आवश्यकता मात्र समझता है। अत: उसके मन में भोग, वासना, एषणा इत्यादि से विरक्ति होती है। वह जो भी करता है इनमें आसक्ति न रखते हुए करता है। ऐसे साधक की दृष्टि में प्राणि-जगत् में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं होता। उसके हृदय में समत्व का अगाध सागर लहराता रहता है। सभी प्राणियों के प्रति उसकी स्नेह, समानता की दृष्टि होती है, अपनी ओर से किसी को पीड़ा पहुँचाने में उसकी जरा भी मानसिकता नहीं होती। अपने सामर्थ्य से जितना, जैसा बन सकता है वह उनका हित ही साधता है।
दार्शनिक दृष्टि से उसकी यह मान्यता होती है कि अपने उत्थान और पतन का वह स्वयं ही उत्तरदायी है। अपना हित या अहित करना उसके अपने हाथ में है। वह कर्म सिद्धान्त पर अटल विश्वास करता है।
ऐसे आत्मपुरुषार्थ शील, निर्वेदसम्पन्न, समत्व-भावोपपन्न सत्पुरुषों द्वारा सेवित, आचरित, संप्रसारित, क्रियान्वित चिन्तनधारा ‘श्रमण संस्कृति' के नाम से अभिहित हुई है। इसमें किसी ईश्वर को सृष्टि के रचयिता, पालनकर्ता, संहर्ता आदि के रूप में स्वीकार नहीं किया गया है। इसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति अपने श्रम व सत्कर्मों से स्वयं ईश्वर बन सकता है। वह ईश्वर के प्रसाद पर निर्भर नहीं है बल्कि उसका स्वयं का पुरुषार्थ उसे उत्कर्ष की चरम स्थिति तक पहुँचा सकता है। उसका मूल लक्ष्य है आत्मचिन्तन, भेद-विज्ञान तथा कर्मक्षय हेतु साधना। चाहे ब्राह्मण हो
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org