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महाकवि ज्ञानसागर के संस्कृत-काव्य-ग्रन्थों के संक्षिप्त कथासार गृहस्थ धर्म का पालन करने लगा। अपराधियों को दण्ड देने और निरपराषों को प्रमय देने के विषय में वह सावधान रहने लगा।
रामदत्ता प्रायिका ने अन्त में योगसमाधि द्वारा अपने शरीर को त्यागा। फलस्वरूप स्वर्ग पहुंचकर सोलह सागर की प्रायु वाले भास्कर देव के रूप में स्वगिक सुख भोगने लगी। राजा पूर्णचन्द्र भी प्रायु के अन्त में महाशुक्र नामक दसवें स्वर्ग में जाकर वैड नामक विमान का प्रधिपति सोलह सागर की आयु वाला हुअा। मुनिरा न सिंहबन्द्र ने कठिन तपस्या की। अतएव वह मन्तिम ग्रेवेयक नामक स्वर्ग में प चकर इकतोस सागर की प्रायु वाला अहमिन्द्र हुमा।
. विजयाई शेल के दक्षिण में स्थित धरणोतिलक नगर का राजा प्रादित्यवेग था। उस राजा की रानी का नाम था मुलभरणा। रामदत्ता के जीव भास्करदेव ने इन दोनों की पुत्री यशोधरा के रूप में जन्म लिया।
__उसी समय अलकापुरी में दर्शक राजा राज्य करता था। दर्शक के साथ श्रोधरा का विवाह हुमा। राजा पूर्णचन्द्र का जीव वैडूर्य विमान का प्रधिपति हमा । श्रीधरा और दर्शक को यशोधरा नाम की पुत्री हुई। भास्कर के राजा सूर्यावर्त के साथ यशोधरा का विवाह हुमा। सिंहमेन गजा का जीव श्रीधरदेव इन दोनों का पुत्र रश्मिवेग हुग्रा।।
सूर्यावर्त ने राज्य रश्मिवेग को सौंप दिया और स्वयं मुनि हो गया। यशोधरा ने मार्यिका होना स्वीकार किया। पुत्री को प्रायिका बनती हुई देखकर श्रीषरा भी प्रायिका हो गई ।
एक दिन रश्मिवेग सिद्धकूट जिन-मन्दिर में पूजन करने के लिए गया। वहां वह मुनिराज हरिश्चन्द्र के दर्शन करके अत्यन्त प्रसन्न हुआ। मुनि को प्रणाम करके उसने उनसे धर्मोपदेश सुना । मुनि के उपदेशों से प्रभावित होकर वह योगी बन गया। तपश्चरण करने से उसका सम्पूर्ण कल्मष धुल गया। अन्त में वह योगसाधना करके कंचनगिरि पहुंचा। एक दिन उसकी वन्दना देतु श्रीपरा पोर यशोधरा भी वहाँ पाई।
इस समय तक सत्यघोष के जीव ने अजगर की योनि में जन्म ले लिया था। उसने कंचनगिरि में रश्मिवेग, श्रीधरा पोर यशोधरा.को खा लिया। ये तीनों तो चौदह सागर को प्रायु प्राप्त करके कापिष्ठ स्वर्ग के देव हये। अजगर मरकर पंकप्रभ नरक में पहुंचकर दु:सह कष्ट भोगने लगा।
षष्ठ सर्ग भरतक्षेत्र में चक्रपुर नाम का नगर है। किसी समय उस नगर में अत्यन्त प्रतापी राजा अपराजित राज्य करता था। उस रामा की रानी इन्द्राणी के समान सोन्दर्यवती, सुन्दरी नाम की थी।