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महाकवि भानसागर के काव्य - एक अध्ययन
पापपता ह.
(क) काशी नरेश प्रकम्पन का दूत अत्यधिक वाग्विदग्ध है। वह जब स्वयंवर में प्रामन्त्रित करने हेतु जयकुमार के पास जाता है, उस समय वह सुलोचना के गुणों का वर्णन करने में अपने वाग्वदग्ध्य का परिचय देता है :
"विचक्षणेक्षणाक्षण्णं वृत्तमेतद्गतं मतम् ।
क्षणदं क्षणमाध्यानाकर्णालङ्करणं कुरु ॥"'
(बह जय कुमार से कहता है कि सावधान होकर, सुख देने वाले इस प्रसाधारण वृत्तान्त को थोड़ी देर के लिए अपने कान का प्राभूषण बना लो) 'मेरी बात सुनो' के स्थान पर उक्त कथन कहकर दूत न केवल जयकुमार को अपितु पाठक को भी प्रभावित करता है। पौर भी
"यात्रा तवावास्तु तदीयगात्रावलोकनलंधफला विषाता।
वामेन कामेन कृतेऽनुकूले तस्मिन् पुन: श्री: सुघटा न दूरे ॥"२ (विधाता आपकी यात्रा को उस सुलोचना के दर्शन से प्राप्तफल वाला बनाये । उस प्रतिकूल गति वाले कामदेव के अनुकूल होने पर लक्ष्मो की प्राप्ति नहीं होती।) । यहाँ पर दूत ने जयकुमार को सुलोचना के उपयुक्त वर के रूप में पाकर उन्हें उक्त प्राशीर्वाद दिया है। साथ ही उसके कथन का यह भी तात्पर्य है कि जयकुमार को सुलोचना अवश्य प्रच्छी लगेगी। दूत की वाक्चातुरी से जयकुमार प्रत्यधिक प्रभावित होते जाते हैं ।
(ख) मुनोचना को परिचारिका विद्यादेवी भी बाक्चतुरा है स्वयंवर मगप में राजापों का परिचय कराते समय वह अपने वाककौशल से पाठक का मन मोह लेती है । प्रस्तुत हैं उसको वाणी से निकले हुए वाग्वदग्ध्य के दो उदाहरण :(म) "काञ्चोरतिरयमार्य काञ्चीमपहर्त महतुं तवेति ।।
काचीफनदिदानी द्विवर्णतां विभ्रमादेति ॥" (हे मायें ! यह कांची देश का स्वामी तुम्हारी करधनी को उतारने के योग्य हो। जो कि इस समय कचनार के फल के समान दो रङ्गों के विभ्रम को उत्पन्न कर रहा है।)
यहाँ 'द्विवर्णता' शम से परिचारिका ने सुलोचना को सावधान कर दिया
१. जगोदय, ३१३८ २. वही, ३६२ ३. वही, ६६३६