Book Title: Gyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Author(s): Kiran Tondon
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 474
________________ ૪૪ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य - एक प्रध्ययन चाय को मान्य हैं । मुनिराज सुदर्शन ने मोक्ष प्राप्ति के पूर्व प्रर्हन्त परमेष्ठी - पद प्राप्त किया है । उस समय देह में उनको जरा भी ममत्त्व न रहा, उनके रागादि जातिया कर्म क्रमशः नष्ट हो गए । तत्पश्चात् वह पूर्ण निर्मल श्रात्मा वाले हो गये । उनकी म्रात्मा में सारा जगत् प्रतिबिम्बित होने लगा । गुणों से विभूषित वह सुदर्शन मुनि सर्ववदेय हो गए।' स्त्री वर्गीय जेनी महात्मा - प्रायिका जैन दर्शन एवं धर्म-ग्रन्थों के परिशीलन से ज्ञात होता है कि जन-धर्म में स्त्री को संन्यास - दशा का यह एक ही प्रकार मिलता है। आर्यिका स्त्री को दीक्षा लेते समय एक ही साड़ी धारण करनी आवश्यक होती है, अत्यल्प परिग्रह धारण करने बाली प्रायिका को भी केशलंचन, कमण्डलु एवं पिच्छीधारण एवं श्रामरण त्याग करना पड़ता है । श्री ज्ञानसागर जी भी स्त्रियों के उत्कर्ष के पक्षपाती हैं। उन्होंने दो बार सुदर्शनोदय में, एक-एक बार श्रीसमुद्रदत्तचरित्र और दयोदय चम्पू में प्रायिका व्रत की दीक्षा का उल्लेख किया है । कवि के अनुसार स्त्री के लिए सर्वथा वस्त्र त्याग का विधान नहीं है । पर प्रार्थिका बनते समय स्त्री को साड़ी के अतिरिक्त प्रौर १. त्यक्त्वा देहगतस्नेहमात्मन्येकान्ततो रतः । बभूवास्य ततो नाशमगू रागादयः क्रमात् ॥ निःशेषतो मले नष्टे नेमल्यमधिगच्छति । प्रादर्श एव तस्यात्मन्यखिलं बिम्बितं जगत् ॥ न दीपो गुणरत्नानां जगतामेकदीपकः । स्तुतो जनतयाधीतः स निरञ्जनतामधात् ॥' वही, ६८४-८६ २. "कोपोनेऽपि समूच्छंत्वान्नार्हत्यार्यो महाव्रतम् । अपि भाक्तसमूच्र्छत्वात् साटकेऽप्यायिकाऽर्हति ॥ X X X यदीत्सर्गिकमन्यद्वा लिङ्गमुक्तं जिनैः स्त्रियाः । पुंवत्तदिष्यते मृत्युकाले स्वल्पीकृतोषधेः ॥' - श्रावकाचारसंग्रह सागरधर्मामृत, ८३६, ३८ ३. (क) सुदर्शनोदय, ८।३३-३४, ६ ७४ (स) श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, ४।१६ (ग) वयोदयचम्पू, ७ श्लोक ३७ के पूर्व का गद्यभाग ।

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