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महाकवि शानसागर के काव्य-एक अध्ययन
है, तब उसको इस क्रिया को 'प्रतिषि-संविभाग' नामक शिक्षाव्रत कहा जाता हैं।' . श्रीज्ञानसागर भी इस 'अतिथिसंविभाग व्रत' को महत्त्व देते हैं। उनकी कृति 'दयोदयचम्पू' के पात्र सोमदत्त एवं विषा घर आये हुए दिगम्बर साधु को अभिवादनपूर्वक बुलाते हैं । उनको प्रदक्षिणा करके उन्हें उच्चासन पर बिठाते हैं, उनके चरण धोकर उनकी पूजा करते हैं पोर हर्षित होकर उन्हें निर्दोष भोजन समर्पित करते हैं। महाकवि ज्ञानसागर को दृष्टि में जन-धर्म का ज्ञानपंचक --- .
जैन धर्म में सम्यग्ज्ञान के पांच भेद माने गये हैं- मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्यायज्ञान एवं केवल ज्ञान । कवि ने अपने काव्यों में प्रारम्भिक दो ज्ञानों (मति ज्ञान एवं श्रुतज्ञान) को छोड़कर शेष तीनों (अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान एवं केवलज्ञान) की चर्चा की है। यहाँ प्रतिसंक्षेप में उन तीनो ही ज्ञानों का परिचय एवं मुनिश्री के काव्यों में प्राप्त उनको चर्चा का क्रमिक उल्लेख : प्रस्तुत है। प्रवधिज्ञान--
जन-धर्म-ग्रन्थों के अनुसार वाह्य कारणों के प्रति निरपेक्ष, सम्यक-दर्शन पादि गुणों से उत्पन्न भय एवं उपशम का कारण तथा भौतिक विषयों को मर्यादित करने वाला ज्ञान ही प्रवधिज्ञान कहलाता है।
___ इस ज्ञान का उल्लेख कवि ने अपने एक काव्य वीरोदय में एक स्थान पर १. जैनधर्मामृत, ४।१०७ २. दयोदयचम्पू, श्लोक १७ और श्लोक २१ के बीच का गद्य भाग।। ३. (क) 'तज्ज्ञानं पञ्चविषं मतिश्रुतावधिमनःपर्याय केवलभेदेन ।'
-माधवाचार्य, सर्वदर्शनसंग्रह, माहंतदर्शन, कारिका १६ के बाद का
गद्यभाग । . .. .. . (ख) मतिश्रुतावधिज्ञानं मनःपर्यायकेवलम् । . .. , .. तदित्यं सान्वयः पञ्चधेति प्रकल्पितम् ।।
-जैनधर्मामत, ३।३ ।। ४. (क) 'सम्यग्दर्शनादिगुणनितमयोपशमनिमित्तमवच्छिन्नविषयं मानमवषिः ।'
-माषवाचार्य, सर्वदर्शनसंग्रह, पाहंतदर्शन, कारिका १६ के बाद का
গন্যমান। (स) देवनारकयो यस्त्ववधिमंक्सम्भवः । षट्विकल्पश्च शेषाणां क्षयोपशमलक्षणः ॥
-धर्मामृत, ३॥६