Book Title: Gyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Author(s): Kiran Tondon
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 516
________________ चतुर्थ परिशिष्ट महाकवि ज्ञानसागर की अन्यकृत प्रशस्तियाँ थे ज्ञानसागर गुरु, मम प्राण प्यारे थे पूज्य साधु गण से, बुध मुख्य न्यारे । शास्त्रानुसार चलते, मुझको चलाते वन्दू उन्हें बिनय से शिर को झुकाते ।। ___-'स्मारिका' (Souvenir) में प्राचार्य श्रीविद्यासागर । गुरो ! दल-दल में मैं था फंसा, मोह पाश से हुआ था कसा । बंध छुड़ाया दिया प्राधार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥१॥ पाप पंक से पूर्ण लिप्त था, मोह नींद में सुचिर सुप्त था। तुमने जगाया किया उपचार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥२॥ मापने किया महान् उपकार, पहनाया मुझे रतनत्रयहार । हुए साकार मम सब विचार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥३॥ मैंने कुछ न को तव सेवा, पर तुमसे मिला मिष्ट मेवा । यह गुरुवर की गरिमा अपार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥४॥ निज धाम मिला, विश्राम मिला, सब मिला उर समंकित पद्म खिला। परे ! गुरुवर का वर उपकार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥५॥ अंष था, बहिर पा, था मैं अज्ञ, दिए नयन व करण बनाया विज्ञ । समझाया मुझको समयसार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥६॥ मोह मल धुला, शिव द्वार खुला, पिलाया निजामृत घुला, घुला। कितना था गुरुवर उर उदार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥७॥ प्रवृत्ति का परिपाक संसार, नियति नित्य सुख का भंडार । कितना मौलिक प्रवचन तुम्हार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥८॥ रवि से बढ़कर है काम किया, जनगण को बोध प्रकाश दिया। चिर ऋणी रहेगा यह संसार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार || स्व पर हित तम लिखते ग्रन्थ, प्राचार्य उपाय थे निग्रंन्य। तुम सा मुझे बनाया पनवार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥१०॥

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