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महाकवि ज्ञानसागर की सूक्तियाँ
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इन्द्रिय दमन कर, कषाय शमरण, करत, निशदिन निज में ही रमरण । क्षमा था तब सुरम्य शृङ्गार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥११॥ बहु कष्ट सहे, समन्वयी रहे, पक्षपात से नित दूर रहे |
चूंकि तुममें या साम्य संचार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥ १२ ॥ मुनि गावे तव गुरण-गरण - गाथा, झुके तव पाद में मम माथा । चलते चलाते समयानुसार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार || १३||
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तुम ये द्वादशविध तप तपते, पल-पल जिनप नाम-जप जपते । किया धर्म का प्रसार-प्रचार, मन प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥१४॥ दुर्लभ से मिली यह 'ज्ञान' सुधा, विद्या' पी इसे मत खो मुधा । कहते यों गुरुबर यही 'सार', मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥। १५ ।। व्यक्तित्व की सत्ता मिटा दी, उसे महासत्ता में मिला दी ।
क्यों न हो प्रभु से साक्षात्कार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥ १६ ॥ करके शिक्षा दी सल्लेखना, शब्दों में हो न उल्लेखना ।
सुर नर कर रहे जय-जयकार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥ १७॥ प्राधि नहीं थी, थी नहीं व्याधि, जब श्रापने ली परम समाधि । अब तुम्हें क्यों न वरे शिवनार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥ १८ ॥ मेरी भी हो इसविध समाधि, शेष, तोष नशे, दोष उपाधि ।
मम आधार सहज समयसार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥६॥ जय हो ! ज्ञानसागर ऋषिराज, तुमने मुझे सफल बनाया भाज | मौर इक बार करो उपकार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार ॥२०॥ - स्मारिका में पृ० सं० ५२-५३ पर प्राचार्य श्रीविद्यासागर |
३. श्रीलाल जी वैद्य ने महाकवि ज्ञानसागर को लौकिक पुरुष न मानकर, संतापहारी देव के रूप में स्वीकार किया है। उन्होंने सनातनधर्मियों के ही समान महाकवि के षोडशोपचारकल्प पूजन का विधान किया है। साथ ही उनके पूजन के लिए उन्होंने भजनों की भी रचना की हैं। क्रमशः पूजनविधि एवं भजन प्रस्तुत
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दोऊ कर जोरु हाथ स्वामी, चरण नवाऊ माथ ।
तिष्ठ तिष्ठ तिष्ठ, नाथ ॥
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हृदय वास करो, दीन दुखी दुखयारा, तुम विन फिरता मारा-मारा,
यासे लीना नाथ सहारा, दु:ख का नाश करो ।
स्वामी कर्म बड़े बलदाई, इनने दुर्गति अधिक बनाई,
इनसे पार न मेरी जाई, इनका नाश करो ॥ ऐसी घोट पिलाई बूटी, सारी ज्ञान निधि मम लूटी, जसे हृदय की भी फूटी, घर प्रकाश करो ॥