Book Title: Gyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Author(s): Kiran Tondon
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 487
________________ महाकवि भानसागर का जीवन-वर्शन व्यक्ति 'परमात्मा' ही है। गुप्ति प्राय: साधु मन, वचन और काय की रक्षा करते हैं। यहाँ रक्षा शब्द का प्राशय संयम लेना चाहिए । साधुषों की इस अवस्था को जैनधर्मावलम्बियों ने मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति माना है। हमारे कवि ने भी इसी बात को स्वीकार किया है । उनके अनुसार प्रत्यधिक प्रावश्यकता होने पर ही मन, बचन मोर काय का प्रयोग किया जाता है। समिति जन-दर्शन में दिगम्बर जैमी साधुनों के लिए पञ्च समितियों का विधान किया गया है-ईर्या समिति, भाषा समिति, एषणा समिति, मादाननिक्षेपण समिति मोर उत्सर्ग समिति । कवि ने भी इन समितियों पर अपनी भास्था प्रकट की है। उनके अनुसार सावधानीपूर्वक चेष्टा का नाम ही समिति है। कवि ने इनका वर्णन भी जैन-धर्मानुसार ही किया है। दिन में प्रासुक् मार्ग में चार हाथ की भूमि को शुद्ध करते हुए कार्यवश गमन ही ईर्या समिति रूप गति है। भेद, चुगली, कठोरता, परिहास प्रादि से रहित, हित से युक्त असन्दिग्ध भाषा, भाषा समिति कहलाती है। प्राहार सम्बन्धी छियालीस दोषों से रहित अन्नादि का स्वाध्याय पोर ध्यानसिद्धि के लिए ग्रहण करना एषणा समिति है। ज्ञान के १. सुदशनादय, ६।७२ २. (क) 'योगानां निग्रहः सम्यग्गुप्तिरित्यभिधीयते । मनोगुप्तिवंचोगुप्तिः कायगुप्तिश्च सा त्रिधा ।' -जैनधर्मामृत, ११३ (ख) 'मनोवचःकायविनिग्रहो हि स्यात्सर्वतोऽमुष्य यतोऽस्त्यमोही। तेषां प्रयोगस्तु परोपकारे स चापवादो मदमत्सरारेः ।।' -बीरोदय, १८।२७ (ग) असमानगुणोऽन्येषां समितिष्वपि तत्परः। गुप्तिमेपोऽनुजग्राहागुप्तरूपधरोऽपि सन् ॥ -श्रीसमुद्रदत्तचरित्र, २१ (घ) 'भवसरमुपेत्य बचोगुप्तिमतीत्प भाषासमितिमवलम्वितवान् ।' -योदयचम्पू, लम्ब ७ श्लोक २८ के पूर्व का गद्यांश । ३. (क) 'ईर्याभाषेषणादाननिक्षेपोत्सर्गभेदतः। तन्निमित्तास्रवभावात्सद्यो भवति बरः ॥' -जैनधर्मामृत, ११॥५ । 'प्रसमानगुणोऽन्येषां समितिष्वपि तत्परः।' -श्री समुद्रदत्तचरित्र, ६।११ का पूर्वाध। .. बोरोग्य, १८२७

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