Book Title: Gyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Author(s): Kiran Tondon
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 495
________________ ज्ञानसागर का संस्कृत-कवियों में स्थान इतिहास प्रन्थ एवं पुराण-ग्रन्थ प्रतीत होता है । इसमें धर्म का स्वरूप जिस कौशल से प्रस्तुत किया गया है, उसको देखते हुए यह धर्मशास्त्र ग्रन्थ की भी श्रेणी में मा जाता है । काव्य के साथ ही इसमें जैन-दर्शन की भी व्याख्या मिलती है, फलस्वरूप इसमें दर्शनग्रन्थ को भी विशेषताएं देखने को मिल जाती हैं। इस कान्य में ब्रह्मचर्य-व्रत के अतिरिक्त पहिंसा एवं अपरिग्रह-इन दो वो को भी शिक्षा बड़े कौशल के साथ दी गई है। इस काव्य का ऋतुवर्णन माघ के ऋतु-वरणंन के समान ही प्रभावशाली है । वर्षा ऋतु का भगवान् के गर्भावतरण के साथ, वसन्त ऋतु का भगवान् के जन्म के साथ, शीत-ऋतु का भगवान् के चिन्तन के साथ, ग्रीष्म ऋतु का भगवान् के उपतपश्चरण के साथ और शरद्-ऋतु का भगवान् महावीर के निर्वाण के साथ वर्णन करके कवि ने ऋतु-वर्णन को नई दिशा दी है। श्री ज्ञानसागर के पूर्व के काम्यों में ऋतुमों का ऐसा प्रासङ्गिक वर्णन देखने को नहीं मिलता। वास्तव में प्रकृति मानव को चिरसहचरी और उसके विचारों का समर्थन करने वाली है, यह बात महाकवि ज्ञानसागर के इस काव्य के पढ़ने से स्पष्ट हो जाती है। उपजाति छन्द, उपमा, अपहलुति अलङ्कार, सुकुमार भाषा-शैली, शान्तरस इन सभी काव्यशास्त्रीय तस्वों का काव्य में बड़ा सन्तुलित प्रयोग देखने को मिलता है। 'जयोदय' महाकाय जहाँ काव्यमर्मज्ञों के बोटिक-विलास का साधन है, वहाँ वीरोदय महाकाम्य सहृदयहृदयग्राह्य है। इस काव्य का पुनर्जन्मवाद और कर्मवाव मानव-मात्र को मच्छे-अच्छे कार्य करने की प्रेरणा देता है। प्रस्तुत काव्य में देवियों द्वारा वर्षमान को माता प्रियकारिणी की सेवा सोधर्मेन्द्र द्वारा भगवान् का जन्माभिषेक, कुबेर एवं इन्द्र द्वारा समवसरण मण्डप का निर्माण प्रादि घटनाएं देवों पोर मानवों को एक सूत्र में बांधने का प्रत्यन्त प्रशंसनीय प्रयास प्रस्तुत करती हैं। साथ ही ये घटनाएं यह भी बताती हैं कि महापुरुष अपनी विशेषतामों से मानव रूप में उत्पन्न होकर भी देवबन्ध हो जाते हैं। . इस काव्य का उद्देश्य पाठक को अहिंसा, ब्रह्मचर्य एवं जैन-दर्शन के महत्त्व का ज्ञान कराना है । यदि दर्शन के सिद्धान्तों को सीधे-सीधे प्रस्तुत कर दिया जाता तो सहृदय सामाजिक इनको पढ़ने में नीरसता का अनुभव करते। प्रतः सामाजिक के लिए इन सिद्धान्त रूपी पोषधियों को कवि ने काव्यानन्वरूपी चाशनी से पाग कर प्रस्तुत किया है। कवि अपने इस प्रस्तुतीकरण के प्रयास से दार्शनिकों पोर कवियों-दोनों की रुचियों को सन्तुष्ट करने में समर्थ हो सका है। अतः कवि का यह काव्य भी संस्कृत-साहित्य की महान् काव्यकृतियों में स्थान पाने योग्य है।

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