Book Title: Gyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Author(s): Kiran Tondon
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 498
________________ ४te महाकवि ज्ञानसागर के काथ्य - एक प्रध्य एवं काव्यशास्त्रियों को एक साथ सन्तुष्ट करने वाला यह काव्य वास्तव में संस्कृत साहित्य की अमूल्य निधि है । (ङ) वयोदयचम्पू कवि मे 'जयोदय', 'वीरोदय' जैसे महाकाव्यों को रचने के साथ 'वयोदय' नामक चम्पू- काव्य की भी रचना की है। संस्कृत-साहित्य के इतिहास पर दृष्टि डालने से ज्ञात होता है कि चम्पू-काव्य की परम्परा मुख्य रूप से त्रिविक्रमभट्ट विरचित 'नलचम्पू' से प्रारम्भ हुई है, तत्पश्चात् तो चम्पूरामायण, चम्पूभारत, यशस्तिलकाचम्पू जैसे अनेक चम्पू काव्यों की रचना हुई। जब हम दयोदयचम्पू को उक्त चम्पूकाव्यों की दृष्टि से देखते हैं, तो हमें अपने मालोक्य कवि श्री ज्ञानसागर का प्रयास सर्वथा नवीन प्रतीत होता है। उपर्युक्त चम्पू काव्य बृहत्काय है, पर दयोदयचम्पू लघुकाय | उक्त काव्यों में श्लेष एवं परिसंख्या के कठिन प्रयोन हैं, जबकि हमारे कवि इस प्रकार के प्रयोगों से सर्वथा बचे हैं। इसका कारण यह है कि त्रिविक्रमभट्ट मादि कवियों के मन में इन काव्यों की रचना के समय पाण्डित्य प्रदर्शन की भी इच्छा रही होगी, जबकि हमारे कवि का उद्देश्य मात्रप्रदर्शन नहीं रहा है। ज्ञानसागर जी का यह चम्पूकाव्य भी एक शिक्षाप्रद काव्य है । इस काव्य माध्यम से कवि ने अहिंसा नामक व्रत की शिक्षा दी है, जो सभी मनुष्यों के पासने योग्य है । पुरुष को चाहिए कि वह यथासम्भव इस व्रत का पालन करे । साथ ही परोपकार, प्रतिथिवत्सलता, योग्य व्यक्ति के सम्मान प्रादि गुरणों की भी शिक्षा दी गई है। समाज में हिंसा व्रत का सब पालन करें, इसलिए इस चम्पूकाव्य में एक बीवर, जिसकी जीविका ही हिंसा से चलती है, के द्वारा महिसाव्रत का पाचन करवाया गया है। यह इसी व्रत का प्रभाव है कि दूसरे जन्म में वह बार-बार सम्भावित मृत्यु के मुंह से बच जाता है ।" काव्य में गद्य-पद्य का सुम्बर सन्तुलन है । सरल मुहावरेदार भाषा, सुकुमारशेली, स्वाभाविक प्रकार प्रबसरानुकूल छम्ब भ्रन्तर्द्वन्द्व और संवाद प्रादि से समृद्ध कलापक्ष इस काव्य में भावपक्ष को पूर्णरूपेण अभिव्यक्त करता है । यदि पाठक नलचम्पू इत्यादि प्राचीन चम्पूकाम्यों की तुलना में इस चम्पू को पढ़ें, तो अवश्य ही उन्हें इसके पढ़ने में अपेक्षाकृत अधिक प्रानन्द की प्राप्ति होगी । क्योंकि उक्त काव्यों में प्रलङ्कारों के प्रयोग के मोह के कारण कवि कथा को प्रवाह देने में अपनी सामयं तो बैठे हैं, जबकि 'दयोदयचम्पू' के मलङ्कार भवसरानुकूल हैं । इसमें वाक्य भी बहुत लम्बे-लम्बे नहीं है । इसीलिए इस काष्ण की कथा के प्रवाह में कोई रुकावट नहीं प्राई । पाठक शब्द-जालों में उलझे बिना कथा का प्रानन्द ले सकता है ।

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