Book Title: Gyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Author(s): Kiran Tondon
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 491
________________ ज्ञानसागर का संस्कृत-कवियों में स्थान ४३१ पक्ष दोनों को कवि ने उचित महत्त्व दिया है। उन्होंने यदि एक मोर काव्य में अच्छी कयामों और छन्दों की उपादेयता स्वीकृत की है, तो दूसरी पोर रस को भी काग्य का प्रावश्यक तत्त्व माना है। कवि के निम्नलिखित वचन उनके उपयुक्त मन्तव्य की पुष्टि करते हैं "सवृत्तकुसुममाला सुरभिकथाधारिणी महत्येषा। पुरुषोत्तमैः सुरागात्सततं कण्ठीकता भातु ॥ यदालोकनतः सयः सरलं तरलं तराम् । रसिकस्य मनो भूयात्कविता वनितेब सा ।।" -जयोदय, २८1८४-८५ महाकवि के काव्यों को देखने से ज्ञात होता है कि उन्होंने उक्त तथ्यों को यथाशक्ति अपनी रचनामों में समाविष्ट किया है। उनका काव्य-कारों के लिए सन्देश है कि उपमा एवं प्रपद्घति इन दो श्रेष्ठ अलकारों का कवि अपने काम्यों में पतिशयता से प्रयोग करें "यातु वृद्धिसमयारिकलोरमापतिप्रतिकं च बुद्धिमान् । भूरिशो ह्यभिनयानुरोधिनी वागलकरणनेऽभिबोधिनी ॥" -जयोदय, २०५४ श्री ज्ञानसागर ने अपने कान्यों में लोकोक्तियों का यथास्थान प्रयोग किया है। इनके माध्यम से वह कवियों को सन्देश देते हुए प्रतीत होते हैं कि सूक्तिमुक्तामय हारावली से शोभित कविता-कामिनी शीघ्र ही सामाजिकों द्वारा प्राह्य होती है। महाकवि ज्ञानसागर के काव्यों में प्रत्यानुप्रास-शैलो एक ऐसी अभिनव वस्तु है, जिससे कवि की मौलिकता में कोई सन्देह नहीं रह जाता । यह कवि द्वारा साहित्य समाज को अनूठी देन है। यह शैली हमें कालिदास, अश्वघोष, माघ, भारवि, श्रीहर्ष इत्यादि में नहीं मिलती है। इस शैली के माध्यम से कवि-विरचित काम्यों में एक रमणीय प्रवाह दृष्टिगोचर होता है और दार्शनिक-सिद्धान्त-जन्य रुक्षता भी नहीं चुभती है। कवि की यह शैली भी उसका संस्कृत-साहित्य समाज . में एक विशिष्ट स्थान निर्धारित करने में समर्थ है। वास्तव में संस्कृत-भाषा में रचित महाकाम्यों में तुलसीदासात रामचरितमानस को चौपाई-शलों के समान शंलो अपनाना अपने पाप में ही एक संस्तुत्य कार्य है। कविवर ने भारवि भोर माप को परम्परा में चित्रकाव्य की भी रचना की है । लेकिन अनुलोम, प्रतिमोम, यमक, एकाक्षर, चार इत्यादि दुर्वोष चित्रामहारों से अपने काम्यों को बचाने का सफल प्रयास किया है। फलस्वरूप वह कठिन-काम के प्रेत की संज्ञा से भोपवये मोर मसानी से कानिराखी परम्परा पदि भी मानने योग्य हो गये।

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