Book Title: Gyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Author(s): Kiran Tondon
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 488
________________ ૪૨૬ महाकवि ज्ञानसागर के काव्य- एक अध्ययन उपकरण पोई संयम के उपकरणों का यत्नपूर्वक उठाना मोर रखना प्रादाननिक्षेपण समिति है । दूरवर्ती, गूढ, विशाल, बाधारहित, शुद्ध पृथ्वीतल पर मलसूत्र का विसर्जन ही उत्सर्ग समिति है। इन समितियों का उपयोग करने से पुरुष अहिंसा, ब्रह्मचर्यादि व्रतों की रक्षा करने में समर्थ हो जाता है ।' उपयोग जैन धर्मानुसार कवि ने 'उपयोग' के चार प्रकार बताये हैं। शरीर को ही सब कुछ समझ लेना प्रशुभोपयोग है । शरीर से प्रात्मा को भिन्न मानकर विवेकपूर्ण विचार करना शुभोपयोग है। शरीर को प्रात्मा से भिन्न करने में चेष्टा करने के विचार को शुद्धोपयोग कहते हैं। एक साथ सब पदार्थों का प्रत्यक्षीकरण करमा ही परमोपयोग है । परमोपयोग की स्थिति तक प्राते प्राते व्यक्ति 'परमात्मा' की संज्ञा को प्राप्त कर लेता है | 3 योग मन, वचन और काय की प्रात्मा के प्रति चेष्टा का नाम योग है। जैन धर्म के अनुसार कवि ने इसको दो प्रकार का माना है-शुभ योग मोर प्रशुभ योग । अपने शरीर मोर इन्द्रियों को पुष्ट बनाने के लिए की जाने वाली चेष्टा का नाम शुभयोग है। प्रपने साथ मौरों के कल्याण के लिए सचेष्ट होना शुभयोग है । प्रतः हिंसा, निर्दयता, दुष्टता से पूर्ण कार्य 'प्रशुभयोग' प्रोर अहिंसा, दया प्रौर परोपकार से पूर्ण कार्य 'शुभयोग' की श्रेणी में प्राते हैं । धर्म-प्रथमं एवं पुरुष का कर्तव्य - श्रीज्ञानसागर के अनुसार जीव का तामसभाव प्रधर्म है; प्रौर परम्परा को बढ़ाने वाला है । जीब का तात्त्विक भाव ही धर्म है और मोक्ष का कारण है। arra व्यक्ति को चाहिए कि वह राग-द्वेष से विमुख होकर सन्तोष को धारण करे । मदमात्सर्य के कारण पुरुष शेय पदार्थ को जानने में असमर्थ हो जाता | जब प्रात्मा क्षोभरहित हो जाता है, तब ज्ञानी व्यक्ति त्रैकालिक पदार्थों को निर्वाध रूप से जान लेता है ।" यह संसार क्षणभंगुर है, इसलिए सुख-दुःख में समभाव रखना चाहिए । १. (क) जैनधर्मामृत, ५८-१३. वीरोदय, १८।२५-२८ २. श्रीसमुद्रदत्तचरित्र ८२१-२४ ३. वही, ८।२५-२६ ४. सुदर्शनोदय, ४।१२ ५. वीरोदय, २०१२-५ ६. दयोदयचम्पू, ७ ३५-३७

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