Book Title: Gyansgar Mahakavi Ke Kavya Ek Adhyayan
Author(s): Kiran Tondon
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 476
________________ महाकवि मानसागर के काव्य -एक अध्ययन किये गये हैं, शेष सात व्रतों में से दो गुणवतों (दिग्वत और देशवत) को छोड़कर पांच व्रतों का कवि ने अपनी कृतियों में जो उल्लेख किया है उसका वर्णन तत्तद् व्रतों के परिचय के साथ अब यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। (क) अनर्थदण्डवत प्रकारण किये जाने वाले पापजनक कार्यों को अनर्थदण्ड कहा जाता है, जैसे पाखेट-गमन, युद्ध, परस्त्रीगमन, चोरी का विचार करना, विचा-व्यापार. लेखनकला-खेती-सेवा पोर कारीगरी से भरण-पोषण करने वालों को पापोपदेश देना, भकारण ही पृथ्वी खोदना, वृक्ष उखाड़ना, हरी दुर्वा पर चलना, पानी नष्ट करना, तथा फल-फूलों का संग्रह करना, छुरी इत्यादि हिंसा के उपकरण बनाना पौर बेचना, दुरी बातों को सुनना मोर सुनाना, दूसरों को प्रज्ञानभरी बातों को शिक्षा देना, बत-क्रोड़ा, सट्टेबाजी प्रादि-प्रादि । इन सब मनर्थदण्डों का परित्याग ही जैनधर्म में 'पनदण्डवत' कहलाता है। इस व्रत को धारण करने वाला पुरुष पहिसाव्रत का सच्चा धारक होता है ।२।। श्री ज्ञानसागर को जैनधर्म-सम्मत इस व्रत पर पूरी-पूरी आस्था है। इसीलिए तो उन्होंने 'जयोदय' महाकाव्य के नायक जयकुमार को गृहस्थ धर्म एवं राजनीति की शिक्षा देने वाले मुनि के द्वारा अनर्थदण्डों का परित्याग करने के लिए उपदेश दिलवाया है। इसी प्रकार दयोदयचम्पू' के नायक मगसेन धोबर के हृदय में पाखेट-गमन के प्रति विरक्ति जागरित कराकर उन्होंने उक्त व्रत के प्रति न केवल अपनी प्रास्था ही प्रकट की हैं, अपितु समाज के अन्य सभी व्यक्तियों को उक्त व्रत पालन की प्रेरणा भी दी है। (ख) सामयिक शिक्षा-व्रत - राग पोर द्वेष का त्याग करके समस्त द्रव्यों में साम्यभाव का आलम्बन करके रहस्य प्राप्ति के मूल कारण भगवद् गुणों का स्मरण करना ही सामयिक शिक्षा व्रत है । इसे रात्रि पौर दिन के अन्त में अवश्य ही करना चाहिए। इसके अतिरिक्त समय में भी करने में और भी अधिक प्रच्छाई संभव है। श्रीज्ञानसागर भी जैनियों के इस वत के पक्षपाती हैं। उन्होंने इस व्रत को तीनों सन्ध्यामों में करने का उपदेश दिया है : १. कवि को धार्मिक विचारधारा, पृ० सं० ४६९-४७० २. जैनधर्मामृत, ४१६६-६२ ३. योदय, २०१२-१३७ ४. दयोदयबम्प, शश्लोक २२ से सम्ब पर्यन्त एवं द्वियीय लम्ब। ५. जैनधर्मामृत, ४१६३-६४

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