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महाकवि मानसागर के काव्य-एक अध्ययन
भी करवाने वाला, छत्तीस गुणों का धारक पुरुष प्राचार्य परमेष्ठी कहा जाता है।' सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र सहित धर्मोपदेश करने में तत्पर शास्त्राभ्यास करने वाले पुरुष को उपाध्याय परमेष्ठी की संज्ञा प्राप्त होती है। मोर सम्यक्त्व का साधन करने वाले, शान्त प्रवृत्तियों वाले पुरुषों को साधु परमेष्ठी कहा जाता है।
जैन धर्मग्रन्थों में परमेष्ठी को संज्ञा प्राप्त करने के पूर्व मुनि की दंगम्बरी दीक्षा का विधान मिलता है । दिगम्बर मनि x x x को वस्त्रों का परित्याग कर देना चाहिए, शिर के केशों का लंचन कर देना चाहिए, आभरणों को छोड़कर केवल पिच्ची धारण करनी चाहिए, वन में निवास करना चाहिए और अधिक बोलने तपा सोने का भी परित्याग कर देना चाहिए।४ . ज्ञानसागर के काज्यों में प्राप्त होने वाली जन महात्मानों को श्रेणियां. जैन-धर्म-प्रन्यों में उपर्यक्त विवेचन के प्राधार पर जब हम अपने पालोच्यमहाकवि ज्ञानसागर की रचनामों को देखते हैं तो ज्ञात होता है कि उन्होंने भी अपने काव्यों में अनेक प्रकार के रूपों का उल्लेख किया है। यहां हम प्रतिसंक्षिप्त रूप में उन्हें प्रस्तुत कर रहे हैं :दिगम्बर मुनि
पुरुष की जन-धर्म-सम्मत स्थिति का कवि ने अपने काव्यों में पर उल्लेख किया है, जयोदय मोर वीरोदय में एक-एक बार, सुदर्शनोदय और श्रीसमुद्र१. (क) 'प्राचाराचा गुणा अष्टो तपो द्वादशधा दश ।
स्थितिकल्पः षावश्यमाचार्योऽमीभिरन्वितः ॥' -श्रावकाचारसंग्रह (भाग-२), धर्मसंग्रह श्रावकाचार, ७।११७ (ख) जनधर्मामृत, २२८६-८७
(ग) नेमिचन्द्र मुनि, २५२ २. (क) एकादशाङ्ग सत्पूर्वचतुर्दशश्रुतं पठन् । व्याकुर्वन्पाठयन्नन्यानुपाध्यायो गुणाग्रणीः ।।'
-श्रावकाचारसंग्रह (भाग-२), धर्मसंग्रह श्रावकाचार, ७।११० (ब) जनधर्मामृत, २२८६-६५
(ग) नेमिचन्द्रमुनि, ३१५३ ३. (क) 'दर्शनशानचारित्रत्रिकं भेदेतरात्मकम् ।
पथावत्सापयन्साधुरकान्तपदमाधितः ।। - -श्रावकाचारसंग्रह (भाग-२) धर्मसंग्रह श्रावकाचार, ११९ (स) बनधर्मामृत, २०६६-१०३
(1) नेमिचन्द्रमुनि, ३३५४ ४. भावकाचारसंग्रह (भाग-२) धर्मसंग्रह भावकाचार, ६।२८०-२८२